Atmadharma magazine - Ank 157
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 10 of 21

background image
: आसो : २४८२ ‘आत्मधर्म’ : २२५ :
गुण तरफ वळतां, पर्यायमांथी हर्ष–शोकनुं क्षणिक भोक्तापणुं छूटी जाय छे, एटले द्रव्य–गुण–पर्याय त्रणेथी
आत्मा साक्षात् अभोक्ता थई जाय छे.
परवस्तुनो भोगवटो आत्माने नथी; जेम शरीर–स्त्री–भोजन वगेरे अनुकूळ संयोगने आत्मा नथी
भोगवतो, तेम शरीर कपाय, रोग थाय ईत्यादि प्रतिकूळसंयोगने पण आत्मा नथी भोगवतो. मात्र हर्ष–शोक
करीने विकारने भोगवे छे. अने ते हर्ष–शोक वखते परवस्तु निमित्त छे तेथी ‘आत्मा परने भोगवे छे’ एम
पण उपचारथी कहेवामां आवे छे. खरेखर तो परने भोगववाना भाव करे छे ने पोताना ते विकारी भावने ज
भोगवे छे. अने अहीं तो एथी पण सूक्ष्म अंर्तस्वभावनी वात छे के विकारने पण भोगववानो आत्मानो
स्वभाव नथी. शरीर कपाय तेनुं वेदन आत्माने नथी, अने ते तरफना अणगमानुं वेदन करवानो पण
आत्मानो स्वभाव नथी, ज्ञायकस्वभावनुं वेदन करवानो आत्मानो स्वभाव छे. अज्ञानी कहे छे के ‘अरेरे, कर्यां
कर्म भोगववां पडे!’–पण अहीं कहे छे के अरे भाई! तुं तारा ज्ञायकस्वभाव तरफ वळ तो...कर्म तरफनुं वेदन
तने रहे नहि. ज्ञायकस्वभाव तरफ वळीने तेनुं वेदन जे नथी करतो ते ज विकारनो भोक्ता थईने चार गतिमां
रखडे छे. आत्माना लक्षे कांई हर्ष–शोकनुं वेदन थतुं नथी, केमके आत्मानो स्वभाव विकारना भोगवटाथी रहित
छे; हर्ष–शोक ते आत्माना ज्ञाताभावथी जुदा छे. कर्म तरफना वलणवाळो जीव ज हर्ष–शोकनो भोक्ता थाय छे
माटे तेने कर्मनुं ज कार्य कह्युं छे, एटले के ते आत्माना स्वभावनुं कार्य नथी, आत्मस्वभाव तो तेनो अभोक्ता
छे–एम बताव्युं छे. आत्मा पोताना स्वभाव तरफ वळीने पोतानी अनंत शक्तिओनी निर्मळतानो अनुभव
करे एवो छे, पण विकारनो के परनो अनुभव करे एवो खरेखर आत्मा नथी. आत्माना स्वभाव साथे जे
परिणति अभेद थई ते तो आत्मा छे, पण जे परिणति विकारना ज अनुभवमां रोकाय तेने आत्मा कहेता
नथी केमके तेमां आत्मानी प्रसिद्धि नथी.
उनाळामां शीखंड–पुरी खाईने बंगलाना बगीचामां हवा खातो बेठो होय ने पोताने सुखी–सुखी
मानतो होय, त्यां ते आत्मा शीखंड के बगीचा वगेरेने तो खरेखर भोगवतो नथी, अने तेमां सुखनी
कल्पनानो जे साताभाव छे तेने पण भोगववानो आत्मानो स्वभाव नथी; तेमज, बगीचामां बेठो होय त्यां
कोई आवीने माथुं कापी नांखे ने तेथी पोताने दुःखी–दुःखी माने त्यां पण ते संयोगने आत्मा नथी भोगवतो,
ने दुःखरूप जे असाताभाव छे तेने पण भोगववानो तेनो स्वभाव नथी. हर्ष–शोकना भोगवटा वगरनो,
ज्ञायक रहेवानो आत्मानो स्वभाव छे. अहो, आवा अभोक्तास्वभावने लक्षमां ल्ये तो गमे ते संयोगमां पण
जीवने पोतानी शांतिनुं वेदन छूटे नहि. स्वभावने भूलीने, बहारनी वस्तुथी मने ठीक–अठीक पडे ने तेनाथी
मने सुख–दुःख थाय–एवी मान्यता ते संसारनुं मूळ छे. शास्त्रमां कहे छे के अज्ञानीने जे अनंतुं दुःख छे ते तो
वास्तविक दुःख ज छे, परंतु ते पोताने जे सुख माने छे ते तो मात्र कल्पना ज छे. सुख ज्यां भर्युं छे एवा
ज्ञानस्वभावना अनुभव वगर वास्तविक सुखनुं वेदन होय ज नहि. आत्माना स्वभावमां जे वास्तविक सुख
भर्युं छे तेनुं वेदन केम थाय, ने अनादिनुं विकारनुं वेदन केम टळे–ते अहीं बतावे छे.
शरीर, लक्ष्मी, मोटर वगेरे जड वस्तु आत्माने सुख आपे,–तो एनो अर्थ ए थयो के आत्मा करतां ते
जड वस्तु वधी गई! आत्मामां तो सुख नथी ने जड तेने सुख आपे छे–एम माननार मूढ जीव कदी पण जड
तरफनुं वलण छोडीने आत्मा तरफ वळशे नहीं, एटले ते संसारमां ज रखडशे. जडमां तो कयांय मारुं सुख नथी,
ने जड तरफना वलणथी हर्षादिनी लागणी थाय तेमां पण मारुं सुख नथी, सुख तो मारा स्वभावमां छे ने ते
स्वभावमां अंतर्मुख वलणथी ज मने मारा सुखनुं वेदन थाय छे–एम ज्ञानी जाणे छे, एटले संयोग तरफनुं
वलण संकोचीने, स्वभावमां अंतर्मुख थईने, अतीन्द्रिय सुखनुं वेदन करतां करतां परम सिद्धपदने पामे छे.
जुओ, आ कोई साधारण उपरछल्ली वात नथी, आ तो आत्माना अंर्तस्वभावनी अपूर्व वात छे,
एकवार आ वात समजे तो अनंतकाळनुं भवभ्रमण अटकी