Atmadharma magazine - Ank 157
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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: २२६ : ‘आत्मधर्म’ २४८२ : आसो :
जाय, आ समजतांवेंत ज अंतरमां घणी वीतरागी शांति थई जाय. शांतिनो ने दुःखथी छूटवानो उपाय तो आ
ज छे, बीजा कोई उपाये जीवने शांति थाय तेम नथी. आ शरीरमां कोई भक्तिथी चंदन चोपडे के द्वेषथी कोई
तेने कापे, मीठो रस हो के कडवो रस हो, सुगंध हो के दुर्गंध हो, सारुं रूप हो के काळुंकूबडुं शरीर हो, कोई प्रशंसा
करो के कोई निंदा करो, –पण ज्ञानी जाणे छे के ते बधा य माराथी भिन्न छे, हुं ते कोईनो भोक्ता नथी, ने तेमां
जराक हर्ष–शोक थाय ते पण मारा ज्ञायकस्वभावी आत्माथी जुदा छे, तेथी तेनो पण हुं खरेखर भोक्ता नथी,
हुं तो ज्ञायक ज छुं.–आवी ज्ञायकद्रष्टिमां वीतरागतानुं घणुं जोर छे. एक समयनी जे विकारदशा छे ते अंतरना
स्वभावमां गोतवा जाय तो मळे तेम नथी, माटे स्वभावनी द्रष्टिमां आत्मा तेनो अकर्ता ने अभोक्ता ज छे.–
आ नास्तिथी कह्युं, अस्तिथी कहीए तो आत्मा पोताना निर्विकारी अनुभवनो कर्ता–भोक्ता छे. आवी
अंर्तस्वभावनी द्रष्टि वगर अज्ञानीजीव कदाच पूर्वे कह्या ते प्रसंगोमां शुभ–रागथी समता राखे, पण ते
समताना शुभपरिणामना भोगवटामां ज अटकी जाय छे ने तेने ज वास्तविक सुख माने छे, आत्माना
अभोक्तास्वभावनी के अतीन्द्रिय–सुखनी तेने खबर नथी.
आत्मानो अभोक्तास्वभाव समजे तो विकारना भोगवटा रहित ज्ञान–आनंदस्वभावनी श्रद्धाथी
सम्यग्दर्शन थाय, ने पछी ते स्वभावमां जेम जेम लीनता थती जाय तेम तेम विकारनुं भोक्तापणुं पण
छूटतुं जाय. जेमके मुनिदशामां आत्मस्वभावमां लीनताथी एटलुं बधुं अभोक्तापणुं प्रगटी गयुं छे के, त्यां
शरीर उपर वस्त्र के बे वखत आहार–ईत्यादि भोगवटानो भाव रह्यो ज नथी; ने केवळज्ञान थतां तो पूरुं
अभोक्तापणुं प्रगटी गयुं, त्यां आहारादिनो भोगवटो सर्वथा होतो ज नथी. पहेलेथी ज अभोक्तापणुं
साधतां साधतां त्यां पूरुं थई गयुं छे. छतां मुनिने वस्त्रनी वृत्ति के केवळीभगवानने आहार ईत्यादि जे
माने छे तेने खबर नथी के कई भूमिकाए केवुं अभोक्तापणुं प्रगटे! अने पोतानी दशामां पण जराय
अभोक्तापणुं तेने थयुं नथी.
अरे जीव! तारो आत्मा तो आनंदनी खाण...तेने आ विकारनो के विषयोनो भोगवटो न होय. तारा
ज्ञायक–स्वभावना आनंदनो भोगवटो छोडीने, अनादिथी आ विकाररूप विषयोना भोगवटा करी करीने तारुं
ज्ञानानंद–शरीर क्षीण थई गयुं.....माटे भाई! हवे ते विकारनो भोगवटो करवामां राजी न था, ने तारा
ज्ञानानंदस्वरूपने संभाळ. विकारनो भोक्ता थवामां तारुं आनंदशरीर हणाय छे, माटे ते भोगवटो छोड; विकार
तारा ज्ञानस्वभावथी जुदा छे, तेने भोगववानो तारो स्वभाव नथी. माटे अंतरमां लक्ष करीने तारा
ज्ञायकस्वभावना अतीन्द्रिय आनंदनो भोगवटो कर.
आबरू खातर बहारमां लोकोना मत मेळववा चूंटणीमां माणसो केवी दोडधाम करे छे!–पण पोते
पोताना आत्मानो मत मेळववा प्रयत्न करता नथी. आत्मानो मत मेळवे तो मुक्तिनुं पद मळे. बहारनां
राजपद के प्रधानपद ते तो बधुं धूळधाणी जेवुं छे, तेमां कांई आत्मानुं हित नथी, ते खरेखर आत्मानुं पद नथी;
छतां तेने माटे केटला झांवा नांखे छे! जो अंर्तद्रष्टिथी आत्माने राजी करीने तेनो मत मेळवे तो त्रण लोकमां
प्रधान–उत्कृष्ट एवुं सिद्धपद मळे. आत्मानो मत कई रीते मळे? जेवो आत्मानो स्वभाव छे तेवो अभिप्रायमां–
मतिमां ल्ये तो आत्मानो मत मळे. पण जेवो स्वभाव छे तेवो न मानतां तेनाथी विरुद्ध माने तो तेने
आत्मानो मत मळे नहि, ने तेने सिद्धपद थाय नहि. एकला विकारने ज भोगववा उपर जेनी द्रष्टि छे तेनी
मतिमां आत्मा आव्यो ज नथी, एटले आत्मानो मत तेनाथी विरुद्ध छे, ते जीव मिथ्यामतिथी संसारमां रखडे
छे; एक समयना विकारना भोगवटाथी रहित आखो ज्ञानानंदस्वभाव हुं छुं–एम अंर्तस्वभावनी द्रष्टि करतां
जे सम्यक्मति थई तेमां आत्मा आव्यो छे, तेने आत्मानो मत मळ्‌यो एटले के सम्यक्दर्शन थयुं, अने तेना
फळमां त्रिलोकपूज्य एवुं सिद्धपद तेने मळशे.
लोको कहे छे के ‘आपणो देश गुलाम छे, गुलामने धर्म थाय नहि, माटे गुलामीनी जंजीर तोडी
नांखो.....’