Atmadharma magazine - Ank 157
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४८२ ‘आत्मधर्म’ : २२७ :
तेने कहे छे के अरे भाई! गुलामने धर्म न थाय ए वात खरी पण गुलामीनो अर्थ शुं तेनी तने खबर नथी.
मारा आत्माने धर्म करवा माटे परसंयोगनी जरूर पडे एवी जे पराधीनतानी बुद्धि ते ज गुलामी छे, ने एवा
पराधीनबुद्धिवाळा गुलामने धर्म थतो नथी; केमके तेणे पोताना आत्माने स्वतंत्र न मान्यो पण देश वगेरे
परसंयोगोनो गुलाम मान्यो. ज्ञानी तो जाणे छे के हुं तो ज्ञायकस्वभाव छुं, हुं संयोगनो गुलाम नथी, मारो धर्म
संयोगोने आधीन नथी पण ज्ञायक–स्वभावना आधारे ज मारो धर्म छे. देश गरीब के पराधीन होय तो हुं
मारा आत्मानो धर्म न करी शकुं एवी पराधीनता मारामां नथी. देश स्वाधीन हो के पराधीन, गमे त्यारे पण
मारा ज्ञायकस्वभावना आश्रये हुं मारा आत्मानो धर्म (सम्यक्–श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र) करी शकुं छुं. खरेखर तो
अनंत गुणोनी वसतीथी भरेलो असंख्यप्रदेशी आत्मा ज मारो स्व–देश छे, एनाथी बहारनो बीजो देश मारो
नथी, ते तो मारा माटे पर–देश छे. अहीं तो कहे छे के विकारी भाव पण ज्ञायकस्वभावी आत्माथी पर छे, तेने
पण भोगववानो आत्मानो स्वभाव नथी, तो पछी लक्ष्मी वगेरे बहारना पदार्थोनी शी वात?
प्रश्न:–कार्तिकस्वामीए द्वादशानुप्रेक्षामां (गाथा १२मां) तो कंजूसने लक्ष्मी भोगववानुं कह्युं छे! अने
अहीं कहो छो के आत्मा तेनो अभोक्ता छे, ए कई रीते?
उत्तर:–त्यां तो जे जीव लक्ष्मीनी लोलुपताथी तीव्र लोभ परिणाममां डुबेलो छे तेने ममत्व परिणाम
कांईक ओछा कराववा माटे लक्ष्मी भोगववानुं कह्युं छे. लक्ष्मीनो संयोग अधु्रव जाणीने ते प्रत्येना ममत्व
परिणाम कांईक घटाडे ने कांईक वैराग्य परिणाम करे–ते माटे त्यां उपदेश छे.–परंतु एटला मात्रथी कांई धर्म
थई जाय–एम त्यां नथी बताववुं. अहीं तो आत्माने धर्म केम थाय तेनी वात छे, एटले आत्मानो मूळस्वभाव
शुं छे ते बतावे छे. आत्मा परनो अभोक्ता छे ए वात लक्षमां राखीने त्यां निमित्तथी उपदेश छे–एम समजवुं.
आत्माना स्वभावनी सन्मुख थतां विकारनो पण अनुभव नथी रहेतो, तो पछी शरीर वगेरेना
भोगवटानी शी वात? शरीरमां रोग थाय त्यां अज्ञानीने एम थई जाय छे के “हाय! हाय! हवे मारुं मरण
थई जशे!” पण अरे भाई! कोण मरे? आ शरीर तो ताराथी जुदुं ज अत्यारे छे, शरीरना रोगनो भोगवटो
तने नथी, माटे शरीरबुद्धि छोड, ने अविनाशी चैतन्यस्वभावने लक्षमां ले, तो तने मरणनी बीक टळी जाय. देह
छूटे तेथी कांई आत्मा मरी जतो नथी. शुं सूर्य मरे छे? चंद्र मरे छे? नक्षत्रो मरे छे? जगतमां परमाणु मरे छे?
जीव मरे छे?–ए कोईनुं मरण थतुं नथी. जगतमां अनादिथी जेटला जीवो छे ने जेटला परमाणुओ छे तेटला ने
तेटला ज सदाय रहे छे, तेमांथी एक पण जीव के एक पण परमाणु कदी ओछो थतो ज नथी. आत्मा त्रिकाळ
पोताना ज्ञानस्वभावे जीवतो ज छे; विकार एक क्षण पूरतो ज छे, तेनुं बीजी क्षणे मरण (अभाव) थई जाय
छे. माटे ते विकारना अनुभवनी बुद्धि छोड ने आत्माना ज्ञानस्वभावनो अनुभव कर, तो मरण रहित एवी
सिद्धदशा प्रगटे. आ सिवाय विकारना भोगवटानी ऊंधी द्रष्टिमां तो अनंत मरण कराववानी ताकात पडी छे.
काळकूळ सर्पनुं झेर तो एकवार मरण करे (–अने ते पण आयुष्य खूट्युं होय तो), परंतु ऊंधी द्रष्टिरूप
मिथ्यात्वनुं झेर तो संसारमां अनंत मरण करावे छे. माटे हे जीव! अनंत चैतन्यशक्तिथी भरेला तारा
अमृतस्वरूप आत्माने ओळखीने तेना अनुभवनो उद्यम कर, ते ज अनंत मरणथी आत्माने उगारनार छे.
जराक प्रतिकूळता आवे के चिंता थाय त्यां तो, अरेरे! मारो आत्मा चिंताना गंजथी घेराई गयो–एम
अज्ञानीने लागे छे......तेने ज्ञानी कहे छे के अरे भाई! चिंताथी घेराई जाय एवो तारा आत्मानो स्वभाव
नथी, तारा आत्मामां अभोक्तास्वभाव छे के चिंताना परिणामने ते न भोगवे........माटे तुं मूंझा
नहीं.......चिंताना अभोक्ता एवा तारा ज्ञायकस्वभावने लक्षमां ले. ज्ञानस्वभावना लक्षे तने ज्ञातापरिणामना
अनाकुळ आनंदनुं वेदन थशे, ते आनंदना ज भोक्ता थवानो तारो स्वभाव छे. ज्ञानीने य कोई वार
चिंतापरिणाम थाय, पण आवा आनंदस्वभावना वेदननी अधिकतामां तेमने चिंतानी अधिकता