
परिणामोना अनुभवना उपरमस्वरूप अभोकतृत्व शक्ति छे.” ज्ञानने अंतरमां वाळतां जे अतीन्द्रिय आनंदनो
भोगवटो थयो तेमां हर्ष–शोकना भोगवटानो अभाव छे. हर्ष–शोकादि विकारी भावोने कर्मथी करवामां आवेला
कह्या ते ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टिथी कह्युं छे; अकर्तृत्वशक्तिना विवेचनमां तेनो घणो खुलासो आव्यो छे ते मुजब
आ अभोकतृत्वशक्तिमां पण समजी लेवुं.
वेदनथी छूटीने अंर्तअनुभवना निर्विकार आनंदनुं वेदन थई शके नहीं. ते उपरांत अहीं तो पर्यायने भेळवीने
एवी वात छे के, पर्यायमां जेने एकांत हर्ष–शोकनुं ज वेदन छे ने तेनाथी पार ज्ञायकस्वभावनुं वेदन जरापण
नथी, तेने आत्मानी अभोकतृत्वशक्तिनी श्रद्धा थई ज नथी. साधकने, अल्प–हर्षादि वखते पण तेनाथी भिन्न
ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि वर्ते छे एटले एकला हर्षादिनुं ज वेदन तेने नथी पण द्रष्टिना बळे हर्षशोकना
अभावरूप ज्ञायकस्वभावनुं वेदन पण तेने वर्ते ज छे; ए रीते तेने अभोक्ताशक्तिनुं निर्मळ परिणमन शरू
थई गयुं छे.
नथी भोगवतो, पण पर तरफना वलणथी हर्ष–शोकना भाव करीने अज्ञानभावथी मात्र तेने ज भोगवे छे.
अहीं अभोक्तृत्वशक्तिमां तो आचार्यदेव एम समजावे छे के ते हर्ष–शोकना भावो पण आत्माना
ज्ञायकस्वभावथी जुदा छे तेथी तेने भोगववानो पण आत्मानो स्वभाव नथी. आत्मानो स्वभाव तो
ज्ञायकस्वभावमां एकाग्र थईने पोताना वीतरागीआनंदने भोगववानो छे.
• हर्ष–शोक–चिंता वगेरेनो भोगवटो आत्माना द्रव्य–गुणमां नथी, मात्र अज्ञानदशामां एक