Atmadharma magazine - Ank 157
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४८२ ‘आत्मधर्म’ : २२३ :
भान करीने तारा आत्माना हितनो उपाय विचार.
अरेरे! मारो आत्मा मृत्युना मुखमां ऊभो छे, मृत्युना मुखमां पडेला आ जीवने
जगतमां अन्य कोई शरणभूत नथी, मारा आत्मामां श्रद्धा–ज्ञान करीने स्थिर रहुं ते ज मने
मृत्युना मुखमांथी ऊगारनार छे, ते एक शरणभूत थाय तेम नथी.–एकवार आत्मामां आवो
निर्णय करे तो पण केटली शांति थई जाय! पोताना हितनो उपाय तेना हाथमां आवी गयो.
‘जेम संयोगोनी अनुकूळतामां मारुं सुख नथी, तेम गमे तेवा प्रतिकूळ संयोगो मने
दुःखनुं कारण नथी. अनुकूळ संयोगमां जेणे सुख मान्युं ते प्रतिकूळमां दुःखी थया वगर रहेशे
नहि, केम के तेनुं वलण ज संयोग तरफ छे. अनुकूळ संयोग कंई कायम तो रहेतो नथी, संयोग
तो एक क्षणमात्रमां पलटी जशे, माटे तेना आश्रये आत्मानी शांति नथी. आत्मानो स्वभाव
पोते सुखस्वरूप छे ते निरंतर रहेनार छे, माटे तेना अवलंबने ज आत्मानुं हित अने शांति
छे’–आम पहेलां हितना उपायनी खोज करीने तेने निर्णय करवो जोईए.–आ रीते संतोनो
ईष्टोपदेश छे, संतोए हितमार्गनो आवो उपदेश आप्यो छे.
अरे, मारुं हित शेमां छे! अत्यार सुधी मारुं हित में न कर्युं ने में मारुं अहित ज करीने
जीवन नकामुं विताव्युं, हवे मारुं हित केम थाय!–एम अंतरमांथी आत्माना हित माटेनी
जिज्ञासा जागवी जोईए. लक्ष्मी वधी तेने मूढ प्राणी देखे छे, पण आयुष्य घटयुं तेने ते देखतो
नथी. ज्यां मरणना टाणां आवशे त्यां लक्ष्मी शरणरूप नहि थाय, वैद्यो बचावी नहि शके, कुटुंबी
कोई एक पगलुंय साथे नहि आवे, ए वखते शरणभूत तो तने तारो आत्मा ज थशे, ते ज तने
शांति आपशे, ते ज तारी साथे आवशे; माटे आत्मा शुं चीज छे तेनी ओळखाण कर.
(ईष्टोपदेश–प्रवचनमांथी)
लक्षपूर्वक पक्ष
एकलो शांत निर्दोष ज्ञानस्वरूपी आत्मा छे तेनी द्रष्टि वगर बीजा लाख प्रकारे पण
कल्याण थतुं नथी.
जेनाथी कल्याण थाय छे एवा पोताना आत्मस्वभावनुं लक्ष करीने तेनो पक्ष जीवे कदी
कर्यो नथी...अने जेना आश्रये कल्याण नथी एवा रागादि व्यवहारनो पक्ष कदी छोडयो नथी.
माटे संतो कहे छे के–
हे भव्य! जो तारे तारुं हित करवुं होय तो ए व्यवहारनो पक्ष छोडी दे......ने तारा
आत्मस्वभावने लक्षमां लईने तेनो पक्ष कर...तेना आश्रये तारुं कल्याण थशे.
आत्मार्थीने तो आ सांभळतां ज अंदर आत्मानो महिमा गरी जाय के अहो! मारे
आवी चैतन्यवस्तुनुं अवलंबन ज करवा जेवुं छे......अंतरमां लक्ष बंधाई जाय–एटले के
ज्ञानना निर्णयमां एक ज प्रकार आवी जाय के आहा! आ एक ज मारुं अवलंबन छे. ज्यां
अंतरना लक्षपूर्वक आवो पक्ष थाय त्यां प्रयत्ननी दिशा स्वभाव तरफ वळ्‌या थया विना रहे ज
नहि......एटले के आत्माना आश्रये अल्पकाळमां तेने सम्यग्दर्शन थाय ज.
(स.गा. ११ उपरना प्रवचनमांथी.)