Atmadharma magazine - Ank 157
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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: २२२ : ‘आत्मधर्म’ २४८२ : आसो :
विचार पण करतो नथी.
अज्ञानी जीव लक्ष्मी वगेरे सामग्रीमां सुख माने छे, अने लक्ष्मी वगेरे मेळववा पाछळ
काळ गुमावे छे. लक्ष्मी केम मळे अने केम वधे–एनी ज चिंतामां जीवन वितावे छे. पण लक्ष्मी
पाछळ आ मनुष्य जीवननो मोंघो काळ चाल्यो जाय छे–तेनी तेने दरकार नथी; एटले
मनुष्यजीवन करतां पण तेने लक्ष्मीनी तृष्णा तीव्र छे; लक्ष्मी खातर जीवन गुमावी द्ये छे, पण
एटलो विचार नथी करतो के अरे! आ जीवन तो चाल्युं जाय छे, में मारुं हित शुं कर्युं? मारुं
हित केम थाय–एवो उपाय करुं.
लक्ष्मी वगेरे विषयोनी ममता आडे मूढ जीवने कांई संकट देखातुं नथी. दस वरसमां दस
लाख रूपिया वधी गया–एम देखे छे,–पण जीवनना दस वर्ष नकामा चाल्यां गयां–ए एने
सूझतुं नथी. वर्तमान सगवडताना प्रेम आडे एवो मूर्छाई गयो छे के माथे अनंत
जन्ममरणनां दुःखो झझूमी रह्या छे–तेने देखतो नथी. जेम चारे बाजु घेरायेला घोर वनमां
आग लागी होय, वच्चे एक ऊंचा झाड उपर चडीने कोई माणस ते जोतो होय, चारे कोर
ससलां ने हरणियां वगेरे जीवो अग्निमां भळभळ करतां बळतां होय, त्रासथी भयभीत जीवो
चारे कोर दोडता होय...त्यां झाड उपर बेठेलो माणस एम विचारे के आ जंगलमां बधा जीवो
आपदामां छे.–एम बीजानी आपदा देखे छे पण पोतानी आपदा देखतो नथी. चारे कोरथी वन
सळगतुं सळगतुं आवी रह्युं छे ने हमणां आ झाडने भस्म करी नांखशे–एम पोताना उपर
आवी रहेला संकटने देखतो नथी ने तेनाथी बचवानो उपाय करतो नथी. तेम आ संसाररूपी
वन जन्म–जरा–मरणनां दुःखोथी चारे बाजु सळगी रह्युं छे, संयोग–वियोग उपरना राग–
द्वेषथी जीवो दुःखी दुःखी थई रह्या छे...त्यां मूढ जीव बीजाने लक्ष्मी वगेरेनो वियोग थतो नजरे
जुए छे, बीजाने मरतां नजरे जुए छे, ए रीते बीजाना दुःखने देखे छे, पण एवा ज दुःख
पोताना उपर झझूमी रह्या छे.–तेने ते देखतो नथी. लक्ष्मी वगेरेना संयोगथी पोताने सुखी
मानी बेठो छे, तेने दुःख भासतुं नथी. एवा जीवने संबोधीने श्रीमद् राजचंद्रजी कहे छे के
“लक्ष्मी अने अधिकार वधतां शुं वध्युं ते तो कहो? शुं कुटुंब के परिवारथी वधवापणुं ए
नय ग्रहो? वधवापणुं संसारनुं, नरदेहने हारी जवो, एनो विचार नहीं अहोहो! एक पळ
तमने हवो.”
अरे जीव! एक क्षण विचार तो कर के “हुं ज्ञान–स्वरूप आत्मा छुं; बहारनी कोई
चीजथी मारुं वधवापणुं नथी. संयोगोनी वृद्धिथी मारी वृद्धि नथी, संयोगी चीजो ज माराथी
जुदी छे. मारी वृद्धि तो मारा ज्ञान ने आनंदथी छे.” संयोगना वधवाथी आत्मानुं वधवापणुं
मानवुं ते तो मनुष्यदेहने हारी जवा जेवुं छे.–भाई! एक क्षण अंतरमां आवो विचार तो कर.
तारा ज्ञानस्वरूप आत्मा साथे आ संयोगो एकमेक नथी. कां तो तारा जीवतां ज तने
छोडीने ए चाल्या जशे, अने कां तो मरण टाणे तुं छोडीने चाल्यो जईश. माटे तेनाथी
भिन्नतानुं भान कर. लक्ष्मी–शरीर–स्त्री आदि संयोगमां सुखनी मान्यता छोडी दे, ने सुख तो
मारा चैतन्यस्वरूप आत्मामां ज छे–एवी प्रतीत कर. अंतरमां संयोगथी भिन्नतानो विचार कर
के मारो आत्मा बधायथी जुदो, एकलो जन्म्यो ने एकलो मरशे, संसारमां पण एकलो ज
रखडे छे ने सिद्धि पण एकलो ज पामे छे. आम भिन्नतानुं