: आसो : २४८२ ‘आत्मधर्म’ : २२१ :
हितनो उपदेश
आ ईष्टोपदेश छे; आत्मानुं हित शेमां छे तेनो आ उपदेश छे. मोक्षपद आत्माने परम
हितरूप छे, ए सिवाय बहारना संयोगोमां आत्मानुं सुख नथी.
अज्ञानी जीवो बहारना संयोगोमां सुख माने छे; तेने अहीं समजावे छे के अरे भाई!
जो ए संयोगोमां सुख होत तो, तीर्थंकर–चक्रवर्ती वगेरे महापुरुषोए राज्यादि वैभवने छोडीने
केम चाल्या गया? तीर्थंकर जेवा महापुरुषो संसारना अपार वैभवने छोडीने साधु थया ने
आत्मसाधनामां एकाग्र थया; केमके तेमणे संयोगमां सुख न जोयुं, आत्माना स्वभावमां सुख
ज छे एम तेमणे जोयुं. संयोगमां तो सुख नथी, ने संयोग तरफना आश्रयमां पण कयांय सुख
नथी, तेमां आकुळता ज छे. एक प्रकारनी आकुळता न मटे त्यां तो बीजी अनेक प्रकारनी
आकुळता ऊभी थाय छे.
शिष्य प्रश्न करे छे के–अनुकूळ संयोगो चाल्या जाय ने प्रतिकूळता आवे त्यारे तो सुख
नहि, परंतु ज्यां सुधी अनुकूळ सामग्रीनो संयोग रहे त्यां सुधी तो सुख छे ने?
तेना उत्तरमां आचार्यदेव कहे छे के अरे भाई! संयोग तरफनी तुष्णा ते दुःखनी ज
जनेता छे. ‘हुं चैतन्यतत्त्व छुं. मारामां ज मारुं सुख छे’–ए चूकीने पर संयोगमां सुखबुद्धि करे
छे ते मूढता छे ने ते मोटुं दुःख छे. पोतानुं सुख परमां केम होय? आत्मवस्तु पोते ज
सुखस्वरूप छे, तेनुं सुख कयांय बहारमां नथी.
चैतन्यसंपदाने चूकीने अज्ञानी जीव बहारनी जड संपत्तिमां सुख माने छे, ते मूढता छे.
भाई, तारा आत्मामां सर्वज्ञता, अतीन्द्रिय आनंद वगेरे सिद्धभगवान जेवो वैभव भरेलो छे,
तेमां ज तारुं सुख छे. तारा स्वरूपनी संपदा पासे चक्रवर्तीना राजनी संपत्ति पण तुच्छ छे.
माटे तारा स्वरूपनी संपदाने ओळखीने तेनी सन्मुख थईने तेनो भोगवतो कर, तेमां ज तारुं
सुख छे. प्रभो! एक वार अंदरमां तो नजर कर. तारा आत्मानो विश्वास तो कर के मारो
आत्मा ज सुखस्वरूप छे, एमां अंतर्मुख थये ज मारुं हित छे, ए सिवाय बहिर्मुख वलणमां
कयांय मारुं हित नथी.
अनंतकाळे दुर्लभ एवुं मनुष्यजीवन, तेनो अल्पकाळ छे, ते कांई कायम रहेवानुं नथी.
पण अज्ञानी–अविवेकी जीव मांडमांड मळेला आ मनुष्य अवतारने विषय–कषाय खातर
वेडफी नाखे छे, आत्मानुं हित केम थाय? ने जन्म–मरणना दुःखमांथी जीवनो छूटकारो केम
थाय–तेनो ते