Atmadharma magazine - Ank 157
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४८२ ‘आत्मधर्म’ : २२९ :
आत्माना स्वभावनो प्रेम करवो जोईए. जेनो प्रेम होय ते तरफ वलण जाय. जेने आत्मानो खरो प्रेम होय
तेने आत्मा न समजाय एम बने नहि. आत्मस्वभावनो प्रेम करीने तेना श्रद्धा ज्ञान ने अनुभव करवा ते ज
अनंतमरणथी आत्माने उगारनार छे.
उपराउपरी दीकरी जन्मे त्यां खेद करे, ने दीकरो जन्मे त्यां हर्ष करे...पण अहीं कहे छे के ते दीकरी के
दीकरानो भोगवनार तो आत्मा नथी, ने ते तरफना शोक के हर्षना परिणामने भोगववानो पण तारो स्वभाव
नथी. एनाथी पार तारुं ज्ञायकस्वरूप छे, ते स्वरूपने श्रद्धामां ले तो तारा आत्मामां अतीन्द्रियआनंदरूपी
पुत्रनो जन्म थाय. ते अतीन्द्रियआनंदनो भोगवटो करवानो आत्मानो स्वभाव छे.
तंबूरना तारनो झणझणाट करीने भगवाननी भक्ति कोई करतुं होय, त्यां अज्ञानीने एम लागे के
वाह! आ भक्तिथी आने धर्म थशे ने तीर्थंकर नामकर्म बंधाई जशे.–पण एने भान नथी के राग ते धर्म नथी;
अने सम्यग्दर्शन वगरना एकला रागथी कोईने तीर्थंकर नामकर्म बंधाय नहीं. जेने सम्यग्दर्शन नथी ने रागना
भोगवटामां ज लीन थई रह्यो छे ए तो मूढ छे, एवा जीवने कदी तीर्थंकर नामकर्म बंधातुं नथी. समकिती
धर्मात्मा रागना वेदनने आत्माना स्वभावथी जुदुं जाणे छे. आत्माना ज्ञायकभावना वेदननी अने रागना
वेदननी जात अत्यंत जुदी छे–एम ते जाणे छे, एटले रागना वेदनमां ते कदी एकाकार थता नथी, स्वभावना
वेदनमां एकाकार थता जाय छे ने रागनुं वेदन छूटतुं जाय छे.–आवुं आत्मानी अभोकतृत्वशक्तिनुं परिणमन
तेने उल्लसे छे.
ए रीते अभोक्तृत्वशक्तिनुं निर्मळ परिणमन थतां थतां ज्यां केवळज्ञान अने परिपूर्ण आनंदनो
भोगवटो प्रगटयो त्यां हर्ष–शोकनुं भोक्तापणुं जरा य ज रह्युं, तेमज आहारादिना भोक्तापणामां निमित्त थाय
एवुं अशुद्धपणुं भगवानने न रह्युं. अतीन्द्रियआनंदनो पूर्ण भोगवटो थई जवा छतां केवळीप्रभुने आहारादिनुं
निमित्त भोक्तापणुं पण होय–एम जे माने छे तेने केवळी भगवाननी अभोक्तृत्वदशानुं के पूर्ण आनंदनुं भान
नथी, अने पोताना आत्माना अभोक्तापणानी पण तेने खबर नथी. अरे, भगवानने पूर्ण आनंद प्रगटी
गयो त्यां आहार केवो? पूर्ण आनंद होय त्यां आहार न ज होय; हजी के त्यां योगनुं कंपन होई शके, एटले के
दिव्यध्वनिनुं निमित्तपणुं तो होय, पण आहारनुं निमित्तपणुं तो न ज होय. अहो, ज्यां आनंदनो पूरो
अनुभव थई गयो, उपयोग एक समयनो पूरो थई गयो, परिपूर्ण अतीन्द्रियभाव ऊघडी गयो, त्यां
इंद्रियविषयोनुं भोक्तापणुं केम होय?–न ज होय.
ज्ञानस्वरूपी वीतरागी अभोकतास्वभाव उपर साधकनी द्रष्टि छे ने पर्यायमां हर्ष–शोकनुं अलप वेदन
पण छे, एटले ते साधकने तो अभोकतापणुं मुख्य ने भोकतापणुं गौण–एवुं मुख्य–गौणपणुं थाय छे; परंतु
केवळी प्रभुने एवुं मुख्य गौणपणुं नथी, केमके तेमने तो जरापण हर्ष–शोकनुं भोकतापणुं रह्युं ज नथी.
हवे केवळीभगवानने जेम हर्षादिना भोकतापणानो सर्वथा अभाव छे, तेम तेमने योगनुं कंपन के
वाणीनो योग पण होई ज न शके–एम नथी. केवळज्ञाननी साथे आहार होवामां विरोध छे, परंतु केवळज्ञाननी
साथे योगनुं कंपन होवामां कांई विरोध नथी. “केवळज्ञानीने ज्ञान ने आनंद वगेरे गुणोनुं शुद्ध परिणमन थई
गयुं त्यां हवे बीजा कोई गुणनुं विभाव परिणमन होई ज न शके, अथवा केवळज्ञान पछी वाणी होई ज न
शके”–एम जे माने छे तेने केवळज्ञाननी खबर नथी, तेमज ज्ञान–आनंद योग वगेरे गुणोमां जे कथंचित्
गुणभेद छे तेने पण ते जाणतो नथी एटले ते एकांतवादी मिथ्याद्रष्टि छे. अने केवळज्ञान पछी पण आहार–
पाणी वगेरे होवानुं जे माने छे तेने केवळीभगवानना के केवळी जेवा पोताना अभोकता स्वभावनी खबर
नथी, तेथी अभोकताशक्तिनुं तेने विपरीत परिणमन छे एटले के ते विकारना अने ईन्द्रियविषयोना ज
भोकतापणामां वर्ते छे, चैतन्यना आनंदनो भोगवटो तेने अंशे पण नथी. अने ज्ञानी तो, ‘मारा
ज्ञायकस्वभावमां विकारनुं भोक्तापणुं जरापण नथी’ एम जाणतो थको, ते स्वभावना आधारे विकारना
भोगवटानो क्षणेक्षणे अभाव करतो जाय छे, ने छेवटे विकारना भोगवटानो सर्वथा अभाव करीने पूर्ण
आनंदनो भोकता थई जाय छे.
–बावसमी अभोक्तृत्वशक्तिनुं वर्णन अहीं पूरुं थयुं.