
तेने आत्मा न समजाय एम बने नहि. आत्मस्वभावनो प्रेम करीने तेना श्रद्धा ज्ञान ने अनुभव करवा ते ज
अनंतमरणथी आत्माने उगारनार छे.
नथी. एनाथी पार तारुं ज्ञायकस्वरूप छे, ते स्वरूपने श्रद्धामां ले तो तारा आत्मामां अतीन्द्रियआनंदरूपी
पुत्रनो जन्म थाय. ते अतीन्द्रियआनंदनो भोगवटो करवानो आत्मानो स्वभाव छे.
अने सम्यग्दर्शन वगरना एकला रागथी कोईने तीर्थंकर नामकर्म बंधाय नहीं. जेने सम्यग्दर्शन नथी ने रागना
भोगवटामां ज लीन थई रह्यो छे ए तो मूढ छे, एवा जीवने कदी तीर्थंकर नामकर्म बंधातुं नथी. समकिती
धर्मात्मा रागना वेदनने आत्माना स्वभावथी जुदुं जाणे छे. आत्माना ज्ञायकभावना वेदननी अने रागना
वेदननी जात अत्यंत जुदी छे–एम ते जाणे छे, एटले रागना वेदनमां ते कदी एकाकार थता नथी, स्वभावना
वेदनमां एकाकार थता जाय छे ने रागनुं वेदन छूटतुं जाय छे.–आवुं आत्मानी अभोकतृत्वशक्तिनुं परिणमन
तेने उल्लसे छे.
एवुं अशुद्धपणुं भगवानने न रह्युं. अतीन्द्रियआनंदनो पूर्ण भोगवटो थई जवा छतां केवळीप्रभुने आहारादिनुं
निमित्त भोक्तापणुं पण होय–एम जे माने छे तेने केवळी भगवाननी अभोक्तृत्वदशानुं के पूर्ण आनंदनुं भान
नथी, अने पोताना आत्माना अभोक्तापणानी पण तेने खबर नथी. अरे, भगवानने पूर्ण आनंद प्रगटी
गयो त्यां आहार केवो? पूर्ण आनंद होय त्यां आहार न ज होय; हजी के त्यां योगनुं कंपन होई शके, एटले के
दिव्यध्वनिनुं निमित्तपणुं तो होय, पण आहारनुं निमित्तपणुं तो न ज होय. अहो, ज्यां आनंदनो पूरो
अनुभव थई गयो, उपयोग एक समयनो पूरो थई गयो, परिपूर्ण अतीन्द्रियभाव ऊघडी गयो, त्यां
इंद्रियविषयोनुं भोक्तापणुं केम होय?–न ज होय.
केवळी प्रभुने एवुं मुख्य गौणपणुं नथी, केमके तेमने तो जरापण हर्ष–शोकनुं भोकतापणुं रह्युं ज नथी.
साथे योगनुं कंपन होवामां कांई विरोध नथी. “केवळज्ञानीने ज्ञान ने आनंद वगेरे गुणोनुं शुद्ध परिणमन थई
गयुं त्यां हवे बीजा कोई गुणनुं विभाव परिणमन होई ज न शके, अथवा केवळज्ञान पछी वाणी होई ज न
शके”–एम जे माने छे तेने केवळज्ञाननी खबर नथी, तेमज ज्ञान–आनंद योग वगेरे गुणोमां जे कथंचित्
गुणभेद छे तेने पण ते जाणतो नथी एटले ते एकांतवादी मिथ्याद्रष्टि छे. अने केवळज्ञान पछी पण आहार–
पाणी वगेरे होवानुं जे माने छे तेने केवळीभगवानना के केवळी जेवा पोताना अभोकता स्वभावनी खबर
नथी, तेथी अभोकताशक्तिनुं तेने विपरीत परिणमन छे एटले के ते विकारना अने ईन्द्रियविषयोना ज
भोकतापणामां वर्ते छे, चैतन्यना आनंदनो भोगवटो तेने अंशे पण नथी. अने ज्ञानी तो, ‘मारा
ज्ञायकस्वभावमां विकारनुं भोक्तापणुं जरापण नथी’ एम जाणतो थको, ते स्वभावना आधारे विकारना
भोगवटानो क्षणेक्षणे अभाव करतो जाय छे, ने छेवटे विकारना भोगवटानो सर्वथा अभाव करीने पूर्ण
आनंदनो भोकता थई जाय छे.