जणाय छे. रागादि विभाव के नर–नारकादि विभावपर्यायो ते आत्मानो स्वभाव नथी पण आत्माना स्वरूपथी
भिन्न छे, केम के सिद्धभगवानने ते नथी;–आम सिद्धभगवानने जाणतां आत्मानुं स्वरूप जणाय छे, ने शरीरादि
नथी. जीवनुं स्वरूप तो अनंत ज्ञान–दर्शन–सुख ने वीर्यसंपन्न छे. आवा निज स्वरूपने जाणतां तेना आश्रये
मोक्षमार्ग तथा मोक्ष प्रगटे छे.
जे सिद्धभगवानमां न होय ते पर.
ईष्ट छे; ने एवा स्वरूपने पामेला श्री सिद्ध भगवान पण निमित्तरूपे परम ईष्ट छे. आम ईष्टपणे स्वीकारीने
सिद्धपरमात्माने नमस्कार कर्या छे.
तेथी तेओ पण ईष्ट छे.
शांतिकारी हितरूप छे, ने सिद्धभगवानमांथी जे भावो नीकळी गया ते भावो आत्माने अहितरूप छे. –आम
ओळखीने पोताना ज्ञानानंदस्वरूपना आदरथी मोहादि भावनो नाश करवो ते कर्मबंधनथी छूटीने मुक्त थवानो
उपाय छे. पण अज्ञानीने स्व–परना भेदज्ञानमां कंटाळो आवे छे, –मोक्षनो उपाय करवामां तेने दुःख लागे छे,
ते आत्मानी श्रद्धा–ज्ञान–रमणतानो तो उपाय करतो नथी ने रागादि भावोने ज हितरूप मानीने सेवे छे, –ते
विपरीत उपाय छे, तेनाथी चतुर्गतिना दुःखथी छूटकारो थतो नथी. सिद्धभगवान जेवो मारो आत्मा छे–एम
जाणीने, आत्मानी सन्मुख थवुं ते दुःखथी छूटीने सुखी थवानो उपाय छे. आत्मानी निर्विकल्प श्रद्धा, ज्ञान अने
एकग्रतारूप रत्नत्रयवडे आत्मा बंधनथी छूटीने मुक्ति पामे छे. शुद्ध रत्नत्रय कहो के समाधि कहो, –ते ज
वास्तविक स्वरूप नथी;” –आ प्रमाणे गुरुना उपदेशथी जाणीने, अथवा पूर्वे सांभळ्युं होय तेना संस्कारथी,
जीव ज्यारे पोताना शुद्ध स्वरूपनी प्रतीत करे छे त्यारे मिथ्यात्वादि कर्मोनो उपशमादि थई जाय छे; तथा
सम्यग्दर्शन थतां तत्त्वोनी विपरीतबुद्धि छूटी जाय छे, ने पोताना शुद्ध आत्मस्वरूप सिवाय बीजे क्यांय
आत्मबुद्धि थती नथी. आ रीते शुद्ध आत्माने आत्मारूपे, विकारने विकाररूपे, ने परने पररूपे जाणे छे, एटले
सम्यग्दर्शन ने सम्यग्ज्ञान थाय छे, पछी आत्मस्वरूपमां स्थिर थतां परथी उदासीनतारूप चारित्र थाय छे;–
उदासीन थईने स्वमां ठरवुं ते मोक्षनो उपाय छे. सिद्धभगवानने ओळखतां आवो मोक्षनो उपाय थाय छे, माटे
मांगळिकमां ईष्टदेव तरीके सिद्धभगवानने नमस्कार कर्यां.
पाम्या छे; ते सिद्धभगवंतोने आत्माना