Atmadharma magazine - Ank 158
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : आत्मधर्म : १५८
सिद्धना स्वरूपने जाणतां आत्मा आत्मारूपे जणाय छे;–केवो आत्मा? कर्म, शरीर के कर्मनी उपाधिथी
थयेला विभावभावो ते बधाथी रहित ज्ञान–आनंद–स्वरूप आत्मा छे, ते ज हुं छुं–एम आत्मा आत्मापणे
जणाय छे. रागादि विभाव के नर–नारकादि विभावपर्यायो ते आत्मानो स्वभाव नथी पण आत्माना स्वरूपथी
भिन्न छे, केम के सिद्धभगवानने ते नथी;–आम सिद्धभगवानने जाणतां आत्मानुं स्वरूप जणाय छे, ने शरीरादि
पररूपे जणाय छे. विकार ते जीवनी पर्याय होवा छतां, सिद्धना आत्मामां ते नथी तेथी ते पर छे, जीवनुं स्वरूप
नथी. जीवनुं स्वरूप तो अनंत ज्ञान–दर्शन–सुख ने वीर्यसंपन्न छे. आवा निज स्वरूपने जाणतां तेना आश्रये
मोक्षमार्ग तथा मोक्ष प्रगटे छे.
जे सिद्धभगवानमां होय ते स्व;
जे सिद्धभगवानमां न होय ते पर.
–जे मोक्षनो अभिलाषी होय ते जीव सिद्धभगवानने पोताना ध्येयरूपे राखीने आ प्रमाणे स्व–परनुं
भेद–विज्ञान करे छे.
हुं ज्ञानस्वरूप आत्मा छुं, ज्ञान ने आनंद ज मारुं स्वरूप छे, ईन्द्रियो के शरीरादि माराथी पर छे, विकार
पण खरेखर मारा स्वरूपथी पर छे. जडथी भिन्न ने विकारथी भिन्न मारुं शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप ज मारुं परम
ईष्ट छे; ने एवा स्वरूपने पामेला श्री सिद्ध भगवान पण निमित्तरूपे परम ईष्ट छे. आम ईष्टपणे स्वीकारीने
सिद्धपरमात्माने नमस्कार कर्या छे.
अहीं एम जाणवुं के सिद्धभगवानने नमस्कार कर्या तेमां पांचे परमेष्ठीभगवंतो आवी जाय छे; केम के
आचार्य वगेरेने पण एकदेश–सिद्धपणुं प्रगट्युं छे, आत्माना ज्ञान–आनंदनी अंशे प्राप्ति तेमने पण थई छे,
तेथी तेओ पण ईष्ट छे.
पंचपरमेष्ठी भगवंतोने ज्ञान–आनंदरूप जे भाव प्रगट्या छे ते आत्माना हितकारी छे; ने मोह–राग–
द्वेषादि भावो ते आत्माने अहितकारी–दुःखदायी छे. सिद्ध–भगवानना आत्मामां जे भावो छे ते भावो आत्माने
शांतिकारी हितरूप छे, ने सिद्धभगवानमांथी जे भावो नीकळी गया ते भावो आत्माने अहितरूप छे. –आम
ओळखीने पोताना ज्ञानानंदस्वरूपना आदरथी मोहादि भावनो नाश करवो ते कर्मबंधनथी छूटीने मुक्त थवानो
उपाय छे. पण अज्ञानीने स्व–परना भेदज्ञानमां कंटाळो आवे छे, –मोक्षनो उपाय करवामां तेने दुःख लागे छे,
ते आत्मानी श्रद्धा–ज्ञान–रमणतानो तो उपाय करतो नथी ने रागादि भावोने ज हितरूप मानीने सेवे छे, –ते
विपरीत उपाय छे, तेनाथी चतुर्गतिना दुःखथी छूटकारो थतो नथी. सिद्धभगवान जेवो मारो आत्मा छे–एम
जाणीने, आत्मानी सन्मुख थवुं ते दुःखथी छूटीने सुखी थवानो उपाय छे. आत्मानी निर्विकल्प श्रद्धा, ज्ञान अने
एकग्रतारूप रत्नत्रयवडे आत्मा बंधनथी छूटीने मुक्ति पामे छे. शुद्ध रत्नत्रय कहो के समाधि कहो, –ते ज
मुक्तिनो उपाय छे.
ज्ञानी गुरुना उपदेशथी एम जाण्युं के “आत्मानो स्वभाव शुद्ध सिद्धसमान छे, सिद्धभगवान जेवो ज
आत्मानो स्वभाव छे, रागादि के शरीरादि तेनुं स्वरूप नथी; तारी पर्यायमां विकार अने दुःख छे पण ते तारुं
वास्तविक स्वरूप नथी;” –आ प्रमाणे गुरुना उपदेशथी जाणीने, अथवा पूर्वे सांभळ्‌युं होय तेना संस्कारथी,
जीव ज्यारे पोताना शुद्ध स्वरूपनी प्रतीत करे छे त्यारे मिथ्यात्वादि कर्मोनो उपशमादि थई जाय छे; तथा
सम्यग्दर्शन थतां तत्त्वोनी विपरीतबुद्धि छूटी जाय छे, ने पोताना शुद्ध आत्मस्वरूप सिवाय बीजे क्यांय
आत्मबुद्धि थती नथी. आ रीते शुद्ध आत्माने आत्मारूपे, विकारने विकाररूपे, ने परने पररूपे जाणे छे, एटले
सम्यग्दर्शन ने सम्यग्ज्ञान थाय छे, पछी आत्मस्वरूपमां स्थिर थतां परथी उदासीनतारूप चारित्र थाय छे;–
आवां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ते मोक्षनो उपाय छे. स्वने स्व–रूपे अने परने पर–रूपे जाणीने, परथी
उदासीन थईने स्वमां ठरवुं ते मोक्षनो उपाय छे. सिद्धभगवानने ओळखतां आवो मोक्षनो उपाय थाय छे, माटे
मांगळिकमां ईष्टदेव तरीके सिद्धभगवानने नमस्कार कर्यां.
परमज्ञान ने आनंदस्वरूप जे परिपूर्ण शुद्ध दशा ते मोक्ष छे. क्षायिकभावे परिपूर्ण ज्ञान–आनंद ज्यां
खीली गयां छे, ने कर्मोनो सर्वथा क्षय थई गयो छे–एवी शुद्ध दशानुं नाम मोक्ष छे. ते मोक्षदशाने सिद्धभगवंतो
पाम्या छे; ते सिद्धभगवंतोने आत्माना