ज आत्मानो स्वभाव छे. ईच्छा अने कंपन बंने विकार छे. जीव एम ईच्छा करे के हुं अमुक ठेकाणे (नंदीश्वर
वगेरे) जाउं, छतां आत्मप्रदेशोमां त्यां जवानी क्रिया न पण थाय, केमके त्यां जवानी ईच्छा अने त्यां जवानी
वगरनो अने कंपन वगरनो छे, अत्मा तो वीतरागी अकंपस्वभावी छे. आत्माना प्रदेशोमां जे कंपन–ध्रूजारो
थाय छे अने तेना निमित्ते कर्मो आवे छे–ते मात्र वर्तमान पूरती लायकात छे, आत्मानी त्रिकाळी शक्तिमां ते
नथी. जो त्रिकाळी शक्तिमां कंपन होय, तो तो सदाय कर्म आव्या ज करे, ने आत्मा कर्मरहित मुक्त कदी थई ज
न शके. पण आत्मानी निष्क्रिय शक्ति छे, ते कदी कर्मने निमित्त थती नथी, अने आवा आत्मस्वभावनी द्रष्टिथी
क्षणेक्षणे कर्मनुं निमित्तपणुं छूटतुं जाय छे, ने सर्व कर्मनो अभाव थईने सिद्धदशा प्रगटे छे, त्यां आत्मा सादि–
अनंत अकंपपणे स्थिर रहे छे. चौदमा गुणस्थानथी ज अकंपणुं थई जाय छे, त्यां आत्माने कर्मनो आस्रव
सर्वथा अटकी गयो छे. नीचली दशामां कंपन तो होय, परंतु ते होवा छतां, आत्मस्वभाव शुं छे तेनी
ओळखाण करवानी आ वात छे. आत्मानो स्वभाव शुं छे ते लक्षमां लईने तेनी हा तो पाडे, पछी ते
स्वभाव प्रतीतमां आवतां ज प्रदेशोनुं कंपन अंशे अटकी जाय. हा, एटलुं खरुं के ते कंपन होवा छतां
मिथ्यात्वादिना रजकणो तो तेने आवतां ज नथी. तेरमा गुणस्थाने ज्ञान–आनंद पूरा थई गया छे, छतां त्यां
प्रदेशोनुं कंपन होय छे. अनादिथी मांडीने तेरमा गुणस्थान सुधी प्रदेशोनुं कंपन होय छे. एक समय पण
पर्यायमां अकंपपणुं थाय तो मुक्ति थया विना रहे नहीं; अने अकंप–आत्म–स्वभावनी प्रतीत करे तेने पण
मुक्ति थया विना रहे नहि. अकंपस्वभावने प्रतीतमां लेवा जतां एकलुं अकंपपणुं जुदुं प्रतीतमां नथी आवतुं
पण अकंपपणानी साथे ज रहेला श्रद्धा–ज्ञान–आनंद–प्रभुता वगेरे अनंत गुणोनो पिंड आत्मा प्रतीतिमां आवे
श्रद्धा अने स्थिरता करीने केवळज्ञान पामी शकाय छे. कोई जीव ज्ञानमां एम विचारे के हुं प्रदेशोना कंपनने
रोकी दउं, –तो एम न रोकाय, केम के ज्ञानक्रियाथी कंपनरूप क्रिया जुदी छे. माटे तुं तारा सम्यक् श्रद्धा–ज्ञान ने
आनंदनो उद्यम कर, प्रदेशोनुं कंपन कांई तारा श्रद्धा–ज्ञान–आनंदने रोकतुं नथी. केवळज्ञान थया पछी पण
कोईने लाखो–अबजो वर्षो सुधी कंपन रहे, छतां त्यां केवळज्ञानने के पूर्णानंदने जराय बाधा नथी आवती.
प्रदेशोनी स्थिरता तो सहेजे तेना काळे थई जशे, जीवे तो पोताना ज्ञानानंद स्वरूपनी श्रद्धा–ज्ञान ने
एकाग्रतानो ज उद्यम करवानो छे. केवळी भगवानने प्रदेशोनुं कंपन होवा छतां आत्मानो अकंपस्वभाव
केवळज्ञानमां प्रत्यक्ष जणाई गयो छे, तेम ज अकंपदशा प्रगटशे ते पण जणाई गयुं छे.
के ‘भगवाननुं बळ केटलुं के धरती धु्रजावी?’ –तो तेने भगवानना आत्मानी खरी ओळखाण नथी. अरे
भाई, आत्मानो पोतानो धु्रजवानो स्वभाव नथी त्यां परने तो ते क्यांथी धु्रजावे? ते वखते ते प्रकारनुं
प्रदेशोनुं कंपन भगवानना आत्मामां थयुं ते पण तेनो स्वभाव नथी, एटले तेना उपरथी भगवानना
आत्मानी खरी ओळखाण थती नथी. भगवानने तो ते वखते, जराक माननो विकल्प अने कंपन होवा छतां
तेनाथी भिन्न पोताना अकंप–ज्ञानानंदस्वभावनुं भान हतुं. ए प्रकारे ओळखे तो ज भगवानने ओळख्या
कहेवाय.