Atmadharma magazine - Ank 158
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 19 of 25

background image
: १८ : आत्मधर्म : १५८
छो के–हराम छे आत्मा परनी क्रिया करी शकतो होय तो! तो ए बंने वातनो मेळ कई रीते छे?
उत्तर:– त्यां आत्मसिद्धिमां तो, जे बिलकुल नास्तिक छे ने आत्मानुं अस्तित्व ज नथी मानतो तेने
आत्मानुं अस्तित्व बताववा माटेनी वात छे. आत्माना होवा विषे ज जेने शंका छे तेने समजावे छे के अरे
भाई! जो आत्मा न होय तो आ ईन्द्रियो क्यांथी जाणे? माटे जे जाणपणुं प्रवर्ते छे ते आत्मानी सत्तावडे जाण.
–ए रीते आत्मानुं होवापणुं त्यां सिद्ध कर्युं छे. अने अहीं तो जे आत्माना अस्तित्वने माने छे पण तेना
वास्तविक स्वरूपने नथी जाणतो ने परनो कर्ता माने छे, तेने आत्मानुं वास्तविक स्वरूप ओळखाववुं छे. भाई,
तारो आत्मा स्थिर स्वभावी छे, तारा आत्माना प्रदेशोमां जे परिस्पंदन थाय ते पण तारो स्वभाव नथी, तो
पछी ताराथी अत्यंत जुदा एवा जड पदार्थोने तारो आत्मा चलावे ए वात तो क्यां रही? प्रदेशोनुं कंपन तो
तारी पर्यायमां छे, परंतु परने हालववानुं तो तारी पर्यायमां पण नथी.
आत्मानी पर्यायमां प्रदेशोनुं कंपन थाय छे ते खरेखर परने लीधे नथी पण पोतानी ज ते प्रकारनी
लायकात छे. परंतु ते कंपन आत्मानो मूळ स्वभाव नथी. समस्त कर्मना अभावरूप सिद्धदशा थतां कंपन
टाळीने निष्कंपदशा प्रगटे छे तेने अहीं निष्क्रियपणुं कह्युं छे.
प्रश्न:– आत्मानो स्वभाव निष्क्रिय छे के सक्रिय?
उत्तर:– प्रदेशोना कंपनरूप क्रिया आत्मानो स्वभाव नथी ते अपेक्षाए तो आत्मा निष्क्रिय छे; पण
पोताना ज्ञान–आनंद वगेरेना निर्मळ परिणामरूपे थवानी क्रिया तेनो स्वभाव छे, ते अपेक्षाए आत्मा सक्रिय छे.
ज्ञान–आनंदना स्वभावथी भरेलो आत्मा कंपन वगरना स्थिर स्वभाववाळो छे. जेम जिनबिंब हलन
चलन वगर ठरी गयेला छे, तेम आत्मानो स्वभाव स्थिरबिंब छे. अनंता सिद्धभगवंतो चैतन्यनी स्थिर
प्रतिमा थई गया छे, तेवो ज आत्मानो स्वभाव छे.
जेम कोई मूर्ख, मध्यबिंदुथी आखो दरियो ऊछळी रह्यो छे तेने तो देखे नहि ने कांठे बहार आवता
मेलने ज देखीने कहे के में दरियो जोयो. –तो खरेखर तेणे दरियो जोयो नथी; केम के कांठानो मेल ते दरियो
नथी, दरियो तो अंदरथी ऊछाळा मारतो मेलने बहार काढी नाखे छे, तेम आ आत्मा अनंत शक्तिओथी
ऊछळतो चैतन्य दरियो छे. हे जीव! अंतरमां अनंत शुद्ध शक्तिओथी भरचक चैतन्य–समुद्र ऊछळी रह्यो छे
तेने तो जो! अनंत शक्तिथी ऊछळता चैतन्य समुद्रने तो जे देखतो नथी ने कांठाना मेलनी माफक पर्यायना
क्षणिक विकारने ज देखे छे ने तेने ज आत्मा माने छे ते जीव लोकोत्तर मूर्ख एटले के मिथ्याद्रष्टि छे. अरे मूढ!
तारा आत्मानो स्वभाव तो अनंत शक्तिओना निर्मळ परिणमनरूपे ऊछळीने विकारने बहार काढी
नांखवानो छे, माटे अंतर्मुख नजर करीने आखा चैतन्य दरियाने देख, ने पर्याय बुद्धि छोड. शांतिनो दरियो
तारा आत्मस्वभावमां भर्यो छे, तेमां द्रष्टि कर तो तने शांतिनुं वेदन थाय, एना सिवाय बीजे क्यांयथी तने
शांतिनुं वेदन थाय तेम नथी.
अहीं एक समयनी कंपनपर्यायने गौण करीने आत्माना त्रिकाळी अकंपस्वभावनी द्रष्टि कराववी छे,
एकलुं अकंपपणुं जुदुं पाडीने नहि पण ज्ञान–श्रद्धा–आनंद–अकंपपणुं ईत्यादि अनंत शक्तिथी अभेदरूप
भगवान आत्मा बताववो छे. लोको कहे छे के अमुक नेता तो पगना धमधमाटथी धरतीने धु्रजावे छे. –पण ए
तो बधुं देहनुं अभिमान छे, अहीं तो कहे छे के भाई! तारो आत्मा देहथी तो जुदो ने त्रिकाळ ध्रूजारा वगरनो
स्थिर–निष्क्रिय छे, तो ते परने कंपावे ए वात क्यां रही? माटे तारा आत्माना स्वभाव सामे जो... तो तारी
अनंत शक्तिओनुं शुद्ध परिणमन ऊछळतां पर्यायमांथी कंपन पण छूटीने सादि–अनंत अकंप एवी सिद्धदशा
प्रगटशे.
–त्रेवीसमी निष्क्रियत्व शक्तिनुं वर्णन अहीं पूरुं थयुं.