Atmadharma magazine - Ank 158
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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: मागशर: २४८३ : १९ :
(अनुसंधान पृष्ठ १० थी शरू)
जगतनी बधी प्रतिकूळताने भूली जाय छे, माटे ज्ञानीनो उपदेश छे के ‘तुं तने ओळख.’
कोईनुं शरीर कृश होय छतां बुद्धि घणी होय, कोईने शरीर स्थूळ होय छतां बुद्धि थोडी होय; ते एम
सूचवे छे के शरीर अने बुद्धि भिन्न भिन्न वस्तु छे. बुद्धि ए तो आत्मानुं ज्ञान छे, ने शरीर तो जड छे. आम
देहादिथी भिन्न आत्माने ओळखीने अनंत जीवो परमात्मा थया... जे पोताना आवा आत्माने ओळखे ते
परमात्मानी पंक्तिमां बेठो कहेवाय.
प्रभो! तुं कोण छो? –के आत्मा; क्यांथी थयो? –के अनादिनो ज छो;
शुं तारुं स्वरूप छे? –के ज्ञान ने आनंद ज तारुं स्वरूप छे.
आवा ज्ञान–आनंदस्वरूप आत्मा सिवाय बीजा कोई साथे तारे संबंध नथी. आवा आत्माने जाणवो
ते ज सुखनो उपाय छे. बीजा लाख उपायथी पण सुख थतुं नथी. जीवो सुख तो ईच्छे छे पण सुखना
वास्तविक उपायने जाणता नथी. जुओ, आ सुखनो उपाय कहेवाय छे. दुनियामां सारामां सारी आ वात छे.
दुनियामां सारामां सारी उत्तम चीज होय तो ते ज्ञान–आनंद–स्वरूप आत्मा ज छे; दुनियाना जीवो सारामां
सारी चीज लेवा मागे छे, दुनियामां सारामां सारी वस्तु एवो जे आत्मा, तेनी प्राप्ति (अनुभव) केम थाय
तेनी आ वात छे.
जेओ भगवान थया तेओ कहे छे के: अहो आत्मा! तारुं स्वरूप वीतराग अकषायी शांत... शांत छे...
तारो आत्मा उपशांत भावथी भरेलो छे. एक वार सत्समागमे तेनो महिमा तो जाण! “आ सारुं... आ सारुं”
एम बीजी चीजने सारी माननारो तुं पोते ज सारो छो के नहि? तारामां कांई सारापणुं छे के नहि? तेने तो तुं
ओळख! आत्मा ज उत्तम छे. आत्मानी पासे पुण्यनां फळरूप ईन्द्रपद पण तुच्छ छे. वीतरागनो भक्त पुण्यना
फळनी भावना भावतो नथी. ईन्द्रो पासे पुण्यना फळना ढगला होवा छतां ते वीतरागी मुनिनो आदर करे छे
के अहो! धन्य धन्य! मुनिराज!! आपना चरणकमळमां मारा नमस्कार छे! आ रीते धर्मात्मा पुण्यने के
पुण्यना फळने उत्तम नथी मानतो पण आत्माना धर्मने ज उत्तम माने छे. आ रीते आत्माना ज्ञानानंदस्वरूपने
प्रतीतमां लईने तेनुं जे बहुमान करे छे तेणे ज वीतरागने खरेखर नमस्कार कर्या छे. आवुं समजीने जे
वीतरागने एक वार पण नम्यो तेने अनंत अवतारनो नाश थई जाय छे.
हे नाथ! हुं मारा आत्मामांथी रागादिनी प्रीति छोडीने वीतराग स्वभावनो आदर करुं छुं, अने
वीतरागताने पामेला एवा आपनुं बहुमान करुं छुं. –आ रीते धर्मात्मा परमात्माने नमस्कार करे छे.
भगवानने नमस्कार करतां धर्मात्मा कहे छे के–हे भगवान! जेवा आप छो तेवो ज हुं छुं, आपनी जातनो ज हुं
छुं–एवी ओळखाण करीने हुं आपनी पंक्तिमां आवुं छुं... हुं पण परमात्मा थवा माटे आपना पगले पगले
आवुं छुं.
आत्मानी ओळखाण करवानो उपदेश
जेओ वनजंगलमां वसता हता ने आत्माना आनंदनुं शोधन करीने तेना वेदनमां जिंदगी गाळता
हता एवा मुनिराज कहे छे के: “अहो! अमने अमारुं चैतन्यपद ज परमप्रिय छे. चैतन्यस्वरूपना
आनंदनी वार्ता सांभळवा माटे देवो पण तलसे छे. चैतन्यस्वरूपनी समजण ज अनंत
जन्ममरणना दुःखोथी जीवनी रक्षा करनार छे. देवो पण मनुष्य अवतारने झंखे छे के क्यारे मनुष्य
थईने अमे अमारी मुक्तिने साधीए ने आ भवचक्रमांथी आत्माने छोडावीए! आ रीते देवोने पण
प्रिय एवो मनुष्य अवतार पामेला हे देवानुप्रिय! देहथी भिन्न तारुं ज्ञानानंदस्वरूप छे तेनो तुं
विचार कर... आ आत्मानी ओळखाण वगर आ भवचक्रमांथी ऊगरवानो बीजो कोई आरो नथी.