: २० : आत्मधर्म : १५८
कारतक वद एकमना रोज पाटणा गामां पू. गुरुदेवनुं प्रवचन
आत्म–धर्मनी आ वात छे. विषय अंतरनो जराक सूक्ष्म छे, पण मोंघा काळे आ मनुष्य अवतार मळ्यो
तेमां आ समजवा जेवुं छे. अनंत अनंत काळथी आ आत्मा अज्ञानने लीधे भवचक्रमां रखडी रह्यो छे. हवे
आवो मनुष्य अवतार पामीने पण जो भवचक्रनो आंटो न टळे–तो मनुष्य भव पामीने हे जीव! तें शुं कर्युं?
श्रीमद् राजचंद्रजी मात्र सोळ वर्षनी वये कहे छे के–
“बहु पुण्यकेरा पुंजथी शुभ देह मानवनो मळ्यो, तोये अरे! भवचक्रनो आंटो नहि एके टळ्यो;
सुख प्राप्त करतां सुख टळे छे लेश ए लक्षे लहो, क्षणक्षण भयंकर भावमरणे कां अहो! राची रहो?”
भाई! तारा आत्माने भूलीने बहारमां क्यांय रंचमात्र पण सुख मानतां तारुं वास्तविक सुख टळी
जाय छे. वास्तविक सुख तारा आत्मामां छे. पण आत्माना भान वगर तुं क्षणे क्षणे संसारमां भावमरण करी
रह्यो छे. ते भावमरण कई रीते टळे–तेनो विचार कर.
श्रीमद् राजचंद्र ज्यारे सात आठ वर्षना बाळक हता त्यारे ववाणियामां एक माणसनुं सर्पदंशथी मृत्यु
थयुं ने लोको तेने स्मशानमां लई जईने बाळता हता; त्यारे ए द्रश्य देखीने श्रीमद् राजचंद्रने अंदरथी विचार
ऊग्यो के आ शुं करे छे? शा माटे आने बाळी दे छे? आना शरीरमांथी एवुं कयुं तत्त्व चाल्युं गयुं के हवे एने
बाळी मूके छे? एम विचार करतां करतां तेमने पूर्वना भवोनुं जाति–स्मरण ज्ञान थयुं. तेओ सोळ वर्षनी
वयमां कहे छे के–
लक्ष्मी अने अधिकार वधतां शुं वध्युं ते तो कहो? शुं कुटुंब के परिवारथी वधवापणुं ए नय ग्रहो?
वधवापणुं संसारनुं नरदेहने हारी जवो, एनो विचार नहि अहोहो! एक पळ तमने हवो.
अरे जीवो! एक पळ विचार तो करो के आ लक्ष्मी के कुटुंबना वधवाथी आत्मामां शुं वध्युं? एने
वधारवानी तृष्णामां तो जीव आ मनुष्यअवतारने हारी जाय छे, माटे एम विचार करो के मारुं हित शेमां छे?
आ देह अने लक्ष्मी वगेरेनो संयोग तो क्षणिक छे, ते तो क्षणमां फू थई जशे. तो ते शरीरादिथी भिन्न हुं कोण
छुं? आवुं देहथी भिन्न आत्मानुं भान करवुं ते धर्म छे, अने ते ज भवथी छूटवानो उपाय छे.
अत्यारे आ पद्मनंदी पच्चीसी–शास्त्रनो बीजो श्लोक वंचाय छे; ते ‘पद्मनंदी’ नामना मुनिए हजार वर्ष
पहेलांं बनावेलुं छे; जेओ वन–जंगलमां रहेता हता अने आत्माना आनंदनुं शोधन करीने तेना वेदनमां
जिंदगी गाळता हता एवा मुनि कहे छे के–
खादिपंचकनिर्मुक्तं कर्माष्टकविवर्जितम्।
चिदात्मकं परं ज्योतिः वन्दे देवेन्द्रपूजितम्।। २।।
आकाश वगेरे पांच जड द्रव्योथी जे भिन्न छे अने आठ कर्मोथी जे रहित छे, तथा देवेन्द्रोथी जे पूज्य
छे एवी चैतन्यस्वरूप परमज्योतिने अमारा नमस्कार हो! आ उत्कृष्ट चैतन्यज्योति भवदुःखोथी अमारी
रक्षा करो!
आत्मानुं स्वरूप ज परम चैतन्यज्योत छे, तेनी सन्मुख ज अमारी एकाग्रता रह्या करो ने बाह्यमां
अमारुं वलण न जाओ–एवी भावनापूर्वक अहीं चैतन्य–ज्योतिने नमस्कार कर्यो छे.
संतो कहे छे के अहो! अमने अमारुं चैतन्यपद ज परम प्रिय छे. चैतन्यस्वरूपना आनंदनी वार्ता
सांभळवा माटे स्वर्गना देवो पण तलसे छे. आ मनुष्य अवतार पामीने चैतन्यस्वरूपने समजवानो प्रयत्न
करवो जोईए. चैतन्यस्वरूपनी समजण ज अनंत जन्म–मरणना दुःखोथी रक्षा करनार छे, ए सिवाय बीजुं कोई
रक्षक नथी. कीडी पण पोताना देहना पोषण खातर जीवन वीतावे छे ने मनुष्य थईने पण जेओ देहने अर्थे ज
जीवन वीतावे छे ने आत्मानी दरकार करता नथी, तो तेमना जीवनमां अने कीडीना जीवनमां शो फेर पड्यो?
हमणां एक हृष्टपुष्ट बळदने पाणी पावा माटे अहीं लाव्या हता... बळद पाणी पीतो हतो. त्रणचार
डोल पाणी पीधुं... पाणी पीतो जाय ने माथुं ऊंचुं करतो