: ६ : आत्मधर्म : १५८
भगवान पासे ऊभा हता ने भक्तो पंचपरमेष्ठीनी स्तुति बोलता हता–
अर्हतो भगवंत इन्द्रमहिताः सिद्धाश्च सिद्धीश्वराः आचार्या जिनशासनोन्नतिकराः पूज्या उपाध्यायकाः।
श्री सिद्धांतसुपाठका मुनिवरा रत्नत्रयाराधकाः पंचैते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं कुर्वन्तु वो मंगलम्।।
ए प्रमाणे स्तुति अने जयकार बाद पू. गुरुदेव नेमिनाथ भगवानना दर्शने आव्या.... प्रभातना
उपशांत वातावरणमां वैराग्य रसमां झूली रहेला ए नाथने थोडीवार नीहाळ्या...ने वैराग्यना धोधथी हृदय
पावन थयुं. त्यां अगाशीमांथी मानस्तंभस्थ गगनविहारी विदेहीनाथ नजरे पड्या... पछी आव्या
समवसरणमां...त्यां दर्शन करीने–
“प्रभुजी! तारा पगले पगले मारे आववुं रे...”
–एम गातां गातां भक्तोए पू. गुरुदेवनी साथे साथे प्रभुजीनी प्रदक्षिणा करी. ते वखते एवुं सरस
वातावरण हतुं के जाणे पू. गुरुदेव भगवानना पंथे विचरी रह्या छे ने भक्तजनो पू. गुरुदेवना पगले पगले
प्रभुना पंथे चाली रह्या छे. त्यारबाद मानस्तंभमां चारे दिशामां बिराजमान सीमंधरप्रभुना दर्शन करीने पू.
गुरुदेव स्वाध्यायमंदिरमां आवीने बिराज्या...
पू. बेनश्रीबेन सहित भक्तमंडळे यात्रा–महोत्सवनी धून गातां गातां स्वाध्यायमंदिरने प्रदक्षिणा दीधी,
पछी गुरुदेवना दर्शन–स्तुति कर्या. त्यारबाद आजना मंगल विहारना मांगळिकरूपे पू. गुरुदेवे प्रमोदथी कह्युं :
“आत्मामां अनंत धर्मो छे...पण सर्वधर्मो नथी. जो आत्मामां सर्वधर्मो होय तो परना धर्मो पण
आत्मामां आवी जाय एटले आत्मा परनी साथे एक मेक थई जाय. –पण आत्मा परथी जुदो छे. आत्मामां
परना धर्मो नथी, एटले तेनामां सर्व धर्मो नथी, पण सर्वज्ञ अने सर्वदर्शीपणुं तेनामां छे. परना चतुष्टयनो
आत्मामां अभाव छे, पण पोताना अनंतज्ञान, दर्शन, आनंद अने वीर्यरूप स्वचतुष्टयथी ते परिपूर्ण छे. आम
परथी भिन्न पोताना स्वभावचतुष्टयने ओळखीने अने तेने व्यक्त करीने अनंता जीवो सिद्धपद पाम्या छे.
पोताना स्वभावचतुष्टय प्रगट करीने अनंता तीर्थंकरो सम्मेदशिखरधामथी मोक्ष पधार्या...ते सम्मेदशिखरजी
तीर्थनी यात्रा करवा माटे आ विहार थाय छे.”
आटलुं कहीने मुमुक्षुओना अपार हर्ष वच्चे ““ अनंतचतुष्टयस्वरूपाय नम:” एवा मंगल–वचनपूर्वक
पू. गुरुदेवे शाश्वत सिद्धिधाम प्रत्ये झडपथी पुनित पगला मांडया...शाश्वत सिद्धिधामनी यात्रा माटे पू.
गुरुदेवना मंगल विहारनो प्रारंभ थयो.
× × ×
सम्मेदशिखरजीनी यात्रा माटे पू. गुरुदेवना आ विहार–महोत्सव प्रसंगे भक्तजनोने घणो आनंद हतो.
सुवर्णपुरीनुं वातावरण आनंद अने उल्लासथी छवाई गयुं हतुं... सुवर्ण–प्रभात अद्भुत शोभाथी खीली रह्युं
हतुं. जराक चालीने आश्रम पासे आवतां पू. गुरुदेव एकाएक थंभी गया... ने भक्तोने आश्चर्य थयुं... त्यां तो
मानस्तंभ सामे नजर करीने पू. गुरुदेव बोल्या–जुओ, भगवान केवा देखाय छे!! भक्तोने ए द्रश्य जोईने
आनंद थयो. पू. गुरुदेव भावपूर्वक हाथ जोडीने भगवानने नीहाळी रह्या हता... जाणे के यात्रा माटे जतां जतां
भगवान पासे विदायनी आज्ञा लेता हता... ने... भगवान मंगल–आशीर्वादपूर्वक विदाय आपता हता.
पू. गुरुदेव तो झडपभेर चाल्या जता हता... ने भक्तो पण उमंगभेर पाछळ जता हता. चोकमां पू.
गुरुदेवे मांगळिक संभळाव्युं... ने भक्तजनो पू. गुरुदेवने वोळावीने मंगलगीत गातां गातां पाछा फर्या:
“गुरुजीनो विहार जयजयकार... विचरे मंगलकारी...”
विहारमां पू. गुरुदेवनी साथे रहेनारा भक्तो (ब्र. भाईओ वगेरे) रस्तामां उमंगपूर्वक गाता हता के:–
चालो चालो, सौ हळीमळीने आज...
सम्मेदशिखर जईए...
चालो चालो, सद्गुरुदेवनी साथ
सम्मेद यात्रा करीए...
चालो चालो, साधक संतोनी साथ...
सम्मेद यात्रा करीए...