
शरीर संकोचवानी क्रिया खरेखर ते ते आत्माए करी नथी; ए ज प्रमाणे सर्प आनंदथी डोले के क्रोधमां आवे
त्यारे तेनी फेण विकसे छे, तथा देडकुं शरीरने फूलावीने दडा जेवुं विकसावे छे,–तेमां पण खरेखर ते ते आत्माए
ते क्रियाने करी नथी. शरीरने अनुसार आत्माना प्रदेशोमां ते प्रकारनो संकोच–विस्तार थयो ते आत्मामां थयो
छे, परंतु ते संकोच–विस्तारनी पर्याय वडे आत्मानो नियत आकार कहेवातो नथी, असंख्य–प्रदेशीपणुं सदा
नियत छे; वळी, एकला नियतप्रदेशत्व वडे पण आत्मा ओळखातो नथी, परंतु एवी अनंत–शक्तिनो पिंड
आत्मा छे, तेने पकडतां ज आत्मा वास्तविक स्वरूपे ओळखाय छे. आ अधिकारना छेडे उपसंहार करतां
आचार्यदेव कहेशे के–आवी अनेकान्त–स्वरूप वस्तु छे, तेने जाणवी ते जैननीति छे. आवी जैनीनीतिने जे
सत्पुरुषो ओळंगता नथी तेओ स्वयं ज्ञानस्वरूप थाय छे; एटले के आत्मा पोते ज्ञान–स्वरूप थई जाय–ते
अनेकान्तनुं फळ छे. ए ज वात बीजी रीते कहीए तो ज्ञानने अंतर्मुख करीने ज्ञायकस्वभावी आत्माने पकडवो
ते ज खरो अनेकान्त छे, ने ते ज जैनमार्गनी नीति छे.
लोकाकाश जेटलो पहोळो नथी; परंतु तेना प्रदेशरूप अवयवोनी संख्या लोकाकाशना प्रदेश जेटली ज छे. आत्मा
लोकाकाश जेटलो पहोळो थाय ते निश्चय ने शरीरप्रमाण रहे ते व्यवहार–एम नथी; पण संख्याथी आत्माने
लोक जेटला असंख्य प्रदेश त्रिकाळ छे ते निश्चय, अने शरीरप्रमाण आकार कहेवो ते व्यवहार छे. आत्माना
असंख्यप्रदेशे अनंत गुणो व्यापीने रह्या छे, अर्थात् असंख्यप्रदेशी आत्मा पोते ज अनंतगुणस्वरूप छे. ते
गुणोमां एवी अंशकल्पना नथी के गुणनो अमुक भाग एक प्रदेशमां ने अमुक भाग बीजा प्रदेशमां; आत्माना
असंख्य प्रदेशोमां कोई प्रदेश गुणथी हीन के अधिक नथी, एटले पग वगेरे नीचेना अवयवोना आत्मप्रदेशोने
खराब कहेवा ने उपरना मस्तक वगेरे अवयवोना आत्मप्रदेशोने सारा कहेवा–एवा भेद आत्मप्रदेशोमां नथी.
बधा प्रदेशो अनंत शक्तिथी परिपूर्ण छे, माटे तारा असंख्य प्रदेशमां भरेली तारी स्वभावशक्तिने जो, ते
तात्पर्य छे.
अशांति, तारी वीतरागता के रागद्वेष, ते बधुंय तारा असंख्य प्रदेशमां ज छे, तारा असंख्य प्रदेशथी बहार
बीजे क्यांय तारुं सुख के दुःख नथी, तारी अशांति पण बहारमां नथी. तारा शांत–उपशम स्वभावनी
विकृतिरूप अशांतिनुं वेदन पण तारा असंख्य प्रदेशोमां ज छे. ज्यां अशांतिनुं वेदन थाय छे त्यां ज तारो शांति
स्वभाव भर्यो छे, ज्यां अज्ञान छे त्यां ज तारो ज्ञानस्वभाव रहेलो छे, ज्यां दुःखनुं वेदन छे त्यां ज तारो
आनंद स्वभाव परिपूर्ण छे, ज्यां रागद्वेषनी उत्पत्ति थाय छे ते ज ठेकाणे तारो वीतरागी स्वभाव विद्यमान छे.
माटे, अशांति टाळीने शांति करवा, दुःख टाळीने सुख करवा, अज्ञान टाळीने ज्ञान करवा के राग–द्वेष टाळीने
वीतरागता करवा क्यांय बहारमां न जो, पण तारा स्वभावमां ज जो. तुं पोते ज ज्ञान–सुख–शांति–
वीतरागताथी भरेलो छे, माटे तेमां नजर कर. तारा आत्मानो एकेय प्रदेश एवो नथी के जेमां ज्ञान–सुख–
शांति–वीतरागतारूप स्वभाव न भर्यो होय, माटे ते स्वभावने जोतां शीख तो तने तारा ज्ञान–सुख–शांति ने
वीतरागतानो व्यक्त अनुभव थाय. बहारमां जोये ज्ञान–सुख–शांति के वीतरागतानुं वेदन नहि थाय केमके
तारुं ज्ञान–सुख–शांति के वीतरागता क्यांय बहारमां नथी.
ईच्छा अनुसार शरीर परिणमतु नथी तेमज आत्माना प्रदेशोमां पण तेवो फेरफार थतो नथी. प्रदेशशक्तिनुं कार्य
स्वतंत्र छे,–तेमां ईच्छानुं निरर्थक–