Atmadharma magazine - Ank 159
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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: १६ : आत्मधर्म : पोष: २४८३
पणुं छे. जे प्रमाणे ईच्छा मुजब प्रदेशोनी रचना नथी थती पण प्रदेशोनी तेवी लायकातथी ज तेनी रचना थाय
छे, ते ज प्रमाणे “हुं सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र करुं के हुं मोक्ष पामुं” एवी ईच्छा वडे सम्यग्दर्शनादि थता नथी,
पण अंर्त स्वभावनुं अवलंबन लईने ते रूपे परिणमन करे तो ज सम्यग्दर्शनादि थाय छे. सम्यग्दर्शनादिनुं
परिणमन आत्मानी शक्तिमांथी थाय छे, कांई ईच्छामांथी नथी थतुं; माटे आत्मानी शक्तिनुं अवलंबन कर, ने
ईच्छाने निरर्थक जाण.
प्रश्न:– शरीरमां जेवो संकोच के विकास थाय तेवो ज संकोच के विकास आत्मामां थाय छे; एक हजार
जोजन मोटा माछला थाय छे त्यां ते हजार जोजनना शरीरमां रहेला आत्माना प्रदेशो पण तेटलो विस्तार
पाम्या छे, ने अंगुलना असंख्यातमा भागनुं नानुं शरीर होय तेमां रहेला आत्माना प्रदेशो तेटलो संकोच
पामीने रह्या छे; बंने आत्माना प्रदेशो सरखा होवा छतां, जेवुं– जेवुं शरीर आवे तेवा तेवा आकारे थाय छे,
माटे ते शरीरने कारणे थयुं के नहि?
उत्तर:– ना; शरीरमां जेवो संकोच के विकास थाय, लगभग तेवो ज संकोच के विकास आत्मामां थाय,
छतां बंने स्वतंत्र छे. शरीरमां क्षय थतां दुबळुं पडे त्यां आत्माना प्रदेशो पण तेवा संकोचाय, ने शरीर हृष्टपुष्ट
थतां आत्माना प्रदेशो पण तेवा आकारे विकास पामे.–परंतु, आ रीते शरीर अने आत्मा बंने एक काळे संकोच
के विकास पामे तेथी शुं? तेथी कांई शरीरने कारणे आत्मा संकोचाणो के आत्माए शरीरने संकोच्युं–एम नथी.
जगतमां तो सदाय एक साथे अनंता द्रव्यो पोतपोतानुं काम करी ज रह्या छे, एक साथे बधाना कार्यो थाय
तेथी कांई एक–बीजाना कर्ता न कहेवाय. ज्यां सिद्धभगवंतो बिराजे छे त्यां ज निगोदना जीव पण रहेला छे,
सिद्धभगवंतो पोतानी परम आनंदरूप सिद्धदशारूपे परिणमी रह्या छे ने ते ज वखते तथा ते ज क्षेत्रे रहेल
निगोदनो जीव परमदुःखरूप निगोददशारूपे परिणमी रह्यो छे, –तो शुं एक ज वखते ने एक ज क्षेत्रे बनेनुं कार्य
थयुं तेथी ने बनेने एक कही शकाशे? अथवा एकबीजाना कर्ता कही शकाशे? –ना; ए ज प्रमाणे जीव अने
शरीरना संकोच–विकासनुं कार्य एक क्षेत्रे ने एक काळे थाय तेथी कांई ते बंनेने एक न कही शकाय, अथवा
एकबीजाना कर्ता पण न कही शकाय. –आम न्यायथी बे द्रव्योनी भिन्नता ओळखे तो बधाय परमांथी मोह (–
आत्मबुद्धि) छूटी जाय, ने चैतन्यस्वरूप पोताना आत्मामां ज बुद्धि वळी जाय. ए रीते बुद्धिने एटले
मतिश्रुतज्ञानने आत्मस्वभावनी सन्मुख करवा ते अपूर्व धर्मनी रीत छे.
आ जड शरीरना अवयव ते आत्माना नथी; आत्मा तो असंख्यप्रदेशी चैतन्यशरीरवाळो छे. भाई, आ
देह तो संयोग–वियोगरूप, क्षणिक, नाशवान, जड छे, तारो आत्मा तेनाथी जुदो, असंयोगी, नित्य,
चेतनस्वरूप छे, तारुं असंख्यप्रदेशी शरीर अनादि–अनंत नियत छे. चारे गतिमां गमे तेटला देह धारण कर्या ने
छोडया छतां तारा आत्मानो एक प्रदेश पण घट्यो के वध्यो नथी. जीवनो नानो मोटो आकार शरीरना के
आकाशना निमित्ते छे, पण एकला जीवनो स्व–आकार तो निश्चयथी सर्वज्ञभगवाने असंख्यप्रदेशी जोयो छे.
आ सिवाय शरीरना अवयवो तो जडनी रचना छे, तेने आत्माना मानवा ते भ्रम छे. भाई, तारुं चैतन्य–
शरीर असंख्यप्रदेशी छे, ने ते ज तारा अवयव छे. असंख्य प्रदेशे अनंतशक्तिओ भरेली छे. खरेखर तुं जड
शरीरमां नथी रह्यो, पण तारा असंख्य प्रदेशोमां ज तुं रह्यो छे. असंख्य–प्रदेशी क्षेत्र ते ज तारुं घर छे, ते ज
तारुं रहेठाण छे.
निगोदमांथी नीकळीने कोई जीव केवळज्ञान अने सिद्धदशा पामे, त्यां पहेलांं निगोददशामां जे असंख्य–
प्रदेशो हता ते ज असंख्य प्रदेशो सिद्धदशामां छे, कांई बीजा नवा प्रदेशो नथी आव्या. असंख्य प्रदेशमां जे
शक्ति भरी हती ते शक्ति प्रगट थई. कोई एक धनुष (४ हाथ) ना शरीराकारे मोक्ष जाय ने कोई पांचसो–
सवापांचसो धनुषना शरीराकारे मोक्षे जाय, छतां ते बंनेना आत्मप्रदेशो तो सरखा ज छे, ज्ञान सरखुं ज छे,
आनंद सरखो ज छे, प्रभुता सरखी ज छे; आ रीते बाह्य आकृतिथी महत्ता नथी पण असंख्य प्रदेशमां जे
स्वभाव भर्यो छे ते स्वभावनी महत्ता छे. आवा असंख्यप्रदेशमां भरेला आत्मस्वभावने जाणे तो देहादि
समस्त पदार्थोमांथी अहंकार के महिमा
[जुओ अनुसंधान पृष्ठ १७]