Atmadharma magazine - Ank 159
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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: १८ : आत्मधर्म : पोष: २४८३
आत्माना आनंदनी वार्ता
आ अध्यात्म ग्रंथ छे, ते आत्मतत्त्वनो प्रकाशक छे. आ देहमां ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा छे, तेनुं भान
करीने जेओ सर्वज्ञ थया अने त्रण काळ त्रण लोकने प्रत्यक्ष जोया, ते सर्वज्ञ परमात्माए जे उपदेश कर्यो तेना
उपरथी आ शास्त्रो वीतरागी संतोए रच्यां छे. तेमां एम कहे छे के हे आत्मा! तुं अनादिअनंत छो, तारा
भावनगर अत्यार सुधीमां तें अनंत अनंत अवतार कर्यां. तारो स्वभाव तो ज्ञान ने आनंद छे; परिभ्रमण
करवुं ते तारो स्वभाव नथी. आत्मा शरीरना रजकणे रजकणथी जुदो छे. ते स्वभावमां तो अतीन्द्रिय
आनंदरस भर्यो छे. आवा आत्मानो रस जेने नथी आवतो ने पुण्य–पापनो रस आवे छे ते संसारमां जन्म–
मरण करे छे. पण एक वार पण जो चैतन्यनो रस प्रगटावीने तेनुं सम्यक्भान करे तो अज्ञाननो नाश थई
जाय, ने पछी तेने जन्म–मरण न रहे.
जेम चणो ज्यारे काचो होय छे त्यारे तूरो लागे छे, ने वाववाथी ऊगे छे; पण तेने सेकतां तेनो स्वाद
मीठो लागे छे ने पछी ते ऊगतो नथी; तेम आत्मामां ज्यां सुधी कचास एटले के अज्ञान छे त्यां सुधी तेने
आकुळतानो स्वाद आवे छे ने ते जन्म–मरणमां रखडे छे. पण रुचिमां तेने पचावीने तेनुं सम्यग्ज्ञान करतां
आनंदनो मीठो स्वाद आवे छे ने पछी ते संसारमां जन्म–मरण करतो नथी.
आत्माना आनंदनी वार्ता सांभळवा माटे स्वर्गना देवो पण तलसे छे, ने ते आनंदप्राप्तिनी वार्ता
सांभळवा माटे तेओ स्वर्गमांथी अहीं आवे छे, तो आवो दुर्लभ मनुष्य अवतार पामीने सत्समागमे
आत्माना आनंदनी प्राप्तिनो उपाय सांभळवो जोईए. आत्माना आनंद स्वभावनी वार्ता सांभळवी पण
दुर्लभ छे, ने ते आनंदनी प्राप्तिनो पुरुषार्थ करवो ते तो महा अपूर्व चीज छे. आनंद कहो के धर्म कहो. धर्म
करनारने पोताना आत्मामांथी आनंदनुं वेदन थाय छे... अंदरथी शांतिना झरणां झरे छे.
प्रभो! तें तारा आत्माना आनंदनो स्वाद कदी न जाण्यो, ने पुण्य–पापना स्वादमां ज अटकी गयो. हवे
तारो आनंद स्वभाव अमे तने बतावीए छीए. आत्मा पोते चिदानंद अमृतनो कुंड छे; तेमां डुबकी मारीने
आनंदमां झूलनारा संतो कहे छे के अरे जीव! तारा आत्मानी समजण कर... साची समजण ते ज तारो विसामो
छे. तारा आत्मामां आनंद सदाय भर्यो ज छे, पण अज्ञानदशामां ते तने अव्यक्त छे... तारा आनंदने तें कदी
देख्यो नथी, ने बहारमां आनंद मानीने तुं संसारनी चारे गतिमां रझळी रह्यो छे... तेमां तने क्यांय विसामो
नथी भाई! आत्मामां आनंद भर्यो छे ते संतोने अतीन्द्रिय ज्ञानवडे व्यक्त जणाय छे. आ एकत्वअधिकारना
त्रीजा श्लोकमां आचार्यदेव कहे छे के–
यदव्यक्तमबोधानां व्यक्तं सद्बोधचक्षुषाम्।
सारं यत्सर्ववस्तुनां नमस्तस्मै चिदात्मने।।
३।।
अबुद्ध–अज्ञानी जीवोने जे अगोचर छे अने सम्यगूज्ञानरूप चक्षुवडे जे व्यक्त–गोचर थाय छे, तथा सर्व
वस्तुओमां जे सारभूत–उत्तम वस्तु छे एवा चैतन्यस्वरूप आत्माने नमस्कार हो.
संतोने आत्मानो आनंद वहालो छे तेथी तेओ सम्यग्ज्ञानवडे आत्माने ओळखीने तेने ज नमस्कार
करे, ते तरफ ज झूके छे.
आत्माना आनंदने जे जाणतो नथी ने बहारनी अनुकूळतामां सुख माने छे, ते जीव प्रतिकूळताने दूर
करीने सुख लेवा मांगे छे. एटले तेना अभिप्रायमां एम छे के मने प्रतिकूळता करनारा जेटला मनुष्यो जगतमां
होय ते बधानो संहार करीने पण हुं अनुकूळता मेळवुं ने सुखी थाउं. –हवे आ लोकमां तो एक खून करनारने
पण फांसी अपाय छे ने हजारो लाखोना संहारनो भाव करनारने पण फांसी एक ज वार अपाय छे. हजार
खून करनारने हजार वार फांसी आ लोकमां अपाती नथी, तो विचार करो के, एक खून करनारने एक वार
फांसी, ने हजारो खुन करनारने पण एक वार फांसी –तेमां शुं कुदरतनो न्याय छे? ना; हजारो मनुष्योनी
हिंसाना तीव्र पाप परिणाम छे तेनुं फळ भोगववानुं