उपरथी आ शास्त्रो वीतरागी संतोए रच्यां छे. तेमां एम कहे छे के हे आत्मा! तुं अनादिअनंत छो, तारा
भावनगर अत्यार सुधीमां तें अनंत अनंत अवतार कर्यां. तारो स्वभाव तो ज्ञान ने आनंद छे; परिभ्रमण
करवुं ते तारो स्वभाव नथी. आत्मा शरीरना रजकणे रजकणथी जुदो छे. ते स्वभावमां तो अतीन्द्रिय
आनंदरस भर्यो छे. आवा आत्मानो रस जेने नथी आवतो ने पुण्य–पापनो रस आवे छे ते संसारमां जन्म–
मरण करे छे. पण एक वार पण जो चैतन्यनो रस प्रगटावीने तेनुं सम्यक्भान करे तो अज्ञाननो नाश थई
जाय, ने पछी तेने जन्म–मरण न रहे.
आकुळतानो स्वाद आवे छे ने ते जन्म–मरणमां रखडे छे. पण रुचिमां तेने पचावीने तेनुं सम्यग्ज्ञान करतां
आनंदनो मीठो स्वाद आवे छे ने पछी ते संसारमां जन्म–मरण करतो नथी.
आत्माना आनंदनी प्राप्तिनो उपाय सांभळवो जोईए. आत्माना आनंद स्वभावनी वार्ता सांभळवी पण
दुर्लभ छे, ने ते आनंदनी प्राप्तिनो पुरुषार्थ करवो ते तो महा अपूर्व चीज छे. आनंद कहो के धर्म कहो. धर्म
करनारने पोताना आत्मामांथी आनंदनुं वेदन थाय छे... अंदरथी शांतिना झरणां झरे छे.
आनंदमां झूलनारा संतो कहे छे के अरे जीव! तारा आत्मानी समजण कर... साची समजण ते ज तारो विसामो
छे. तारा आत्मामां आनंद सदाय भर्यो ज छे, पण अज्ञानदशामां ते तने अव्यक्त छे... तारा आनंदने तें कदी
देख्यो नथी, ने बहारमां आनंद मानीने तुं संसारनी चारे गतिमां रझळी रह्यो छे... तेमां तने क्यांय विसामो
नथी भाई! आत्मामां आनंद भर्यो छे ते संतोने अतीन्द्रिय ज्ञानवडे व्यक्त जणाय छे. आ एकत्वअधिकारना
त्रीजा श्लोकमां आचार्यदेव कहे छे के–
सारं यत्सर्ववस्तुनां नमस्तस्मै चिदात्मने।।
होय ते बधानो संहार करीने पण हुं अनुकूळता मेळवुं ने सुखी थाउं. –हवे आ लोकमां तो एक खून करनारने
पण फांसी अपाय छे ने हजारो लाखोना संहारनो भाव करनारने पण फांसी एक ज वार अपाय छे. हजार
खून करनारने हजार वार फांसी आ लोकमां अपाती नथी, तो विचार करो के, एक खून करनारने एक वार
फांसी, ने हजारो खुन करनारने पण एक वार फांसी –तेमां शुं कुदरतनो न्याय छे? ना; हजारो मनुष्योनी
हिंसाना तीव्र पाप परिणाम छे तेनुं फळ भोगववानुं