Atmadharma magazine - Ank 160
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957).

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: માહ : ૨૪૮૩ આત્મધર્મ : ૧૩ :
वीतरागप्रणीत निर्ग्रंथ मार्ग पर द्रढ श्रद्धा, आत्मार्थिता, गुणगरिमा, निःस्पृहता, कर्तव्यनिष्ठा और
परोपकारपरायणता का मूर्तिमान रूप सोनगढ़
(सौराष्ट्र) हैं, जो आपही के कारण आज तीर्थ–स्थान
बन गया है। समस्त सौराष्ट्र में आपने जैन धर्म का महान् उद्योत कर दिया है। आप समान परमोपकारी
आत्मार्थी सत्पुरुष का समागम पाकर आज हम अतिशय गौरव का अनुभव कर रहे हैं।
संतप्रवर!
यह धर्मप्रधान भारतभूमि सदा से साधु एवं संत जनों को जन्म देती रही है। विभिन्न दर्शनों के
सूत्रपात का स्थान भी यही है। किन्तु इद्दलौकिक और पारलौकिक कल्याण के हेतु सम्यग्दर्शन,
सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र तीनों ही आवश्यक है। साधुत्व एवं संतत्त्व की साधना में रत्नत्रय प्रमुख
साधन है। आपने सांसारिक वैभव और इन्द्रिय सुखों को तिलांजलि देकर आजन्म ब्रह्मचारी रहते हुए
श्रीमद् कुन्दकुन्दस्वामी प्रभृति आचार्यो द्वारा प्रणीत विश्वभारती के अनुपमरत्न समयसार, प्रवचनसार
आदि महान ग्रन्थों का गंभीर अध्ययन कर अन्तर्द्रष्टि प्राप्त की हैं। अनेक संकटो एवं बाधक परिस्थितियों
को आह्वान करते हुए शांति और सहिष्णुतापूर्वक अपने निश्चित ध्येय एवं लक्ष्य की ओर अग्रसर बने हुए
हैं। आपकी श्रद्धा, साहस और द्रढ़ता की जितनी सराहना की जाय, थोड़ी है।
अध्यांत्मयोगिन्!
मोह और ममता के पंक में निमग्न मानव समूह का हित बहिर्मुखी वृत्ति से हटकर अन्तर्मुख बनने
में ही है। आप अपने अतिशय प्रभावक आध्यात्मिक प्रवचन द्वारा आत्मतत्त्व के निरूपाधिक शुद्ध स्वरुप
का स्वाभाविक चित्र प्रस्तुत कर श्रोताओं को आत्मदर्शन की ओर प्रैरणा प्रदान करती हैं। अपनी
उद्बोधक वाणीद्वारा आप भौतिक सुखों की लालसा में निमग्न जनता को आत्मज्ञान की ओर झुकने के
लिये सदैव उपदेश करते रहते हैं। आपके द्वारा के गई भारतीय संस्कृति एवं आत्मधर्म की महान् सेवा
भारत के धार्मिक इतिहास में चिरस्मरणीय रहेगी।
इस षावन प्रसंग पर उपस्थित हम मुमुक्षुजन आपका अन्तःकरण से अभिनन्दन करते हुए अपने
भावों की कुसुमांजलि इस सम्मान पत्र के द्वारा समर्पित करते हैं और शाश्वत विद्यमान श्री १००८
जिनेन्द्र भगवान श्री सीमंधर स्वामी से प्रार्थना करते है कि आपका सदुद्रेश्य सफल हो और आप चिरायु
रह कर विश्व हितकारी जिनशासन की पताका फहराते हैं।
गांधी हाल, इन्दौर विनयावनत
दिनांक २८–१–१९५७ दिगम्बर जैंन समाज, इन्दौर.