Atmadharma magazine - Ank 160
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957).

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: ૧૬ : આત્મધર્મ ૨૪૮૩ : માહ :
परमपूज्य प्रातःस्मरणीय श्री कानजी स्वामी के पुनीत करकमलोंंमें सादर समर्पित
अभनन्दन पत्र
मान्यवर,
आपके विराट् संघ ने सिद्धक्षेत्र श्री सम्मेदशिखरजी के यात्राप्रसंग से आज इस छोटी सी नगरी
में एक दिवसीय विराम लिया है, यह हम सब के परम सौभाग्य का विषय है। वसन्त की पद चाप से
वसुधावधू का रोम हर्ष था एवं कोकिल का पंचम मुखरित होना स्वाभाविक है, यह विद्यास्थली भी
आज आप जैसे बहुमुखी व्यक्तित्व को अपने मध्य पा अलौकिक आनन्द का अनुभव कर रही है।
अध्यात्म सन्त,
आपके शोधपूर्ण एवं ठोस अध्ययन तथा अनुभव ने अध्यात्म जगत में एक युगान्तर ही उपस्थित
कर दिया हैं। भारतवर्ष सहस्रों वर्षों से सन्तभूमि रही है, परंतु आत्मतत्त्व की इतनी मौलिक, जगन्मोहिनी
एवं रसवती व्याख्या जिसका निर्विरोध रूप से सर्वत्र स्वागत हुआ हो अद्यावधि कम ही हुई है।
अजातशत्रु,
आप राग द्वेष की छुद्र सीमाओं से परे है, मलयाचल की सुरभि–सद्रश आपकी सरल सुकोमल
वाणी सभी आत्माओं को स्वभाव से ज्ञानभरित करती है। आपके निर्विकार व्यक्तित्व के सन्मुख उग्र
विरोधक शक्ति भी नत हो सेविका बनने में ही आनन्दानुभव करती हैं।
आपसे आशा,
आपकी ज्ञानगरिमा, स्वभाव की सरलता, सुलझी हुई विचारधारा तथा धर्म की सर्वमान्य
विवेचना से हमें भगवान महावीर एवं महात्मा बुद्ध का समय स्मरण हो जाता है। हमारी अभिलाषा ही
नहीं विश्वास भी हैं कि आपकी वाणी भारत ही नहीं सम्पूर्ण विश्व की अन्धकाराच्छन्न जनता का उचित
मार्ग निर्देशन कर विश्वशान्ति स्थापित करेगी।
हम हैं,
आपके आशीर्वचनाभिलाषी अध्यापक एवं छात्र,
दिनांक श्री पी० डी० जैन इण्टर कालेज,
फरबरी १६, सन् १९५७ फीरोजाबाद [आगरा]