Atmadharma magazine - Ank 160
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 24 of 25

background image
: माह : २४८३ आत्मधर्म : २३ :
वैराग्यमय हित वचनो


१. सुख आत्माना स्वभावमां छे, संयोगमां नथी. पण पोताना स्वभावने भूलेलो अज्ञानी जीव
बहारमां सुख माने छे.
२. अज्ञानी जीवने आ संसार संबंधी जे दुःख छे ते तो वास्तविक, दुःख ज छे; परंतु इंद्रिय विषयोमां ते
जे सुख माने छे ते तो मात्र कल्पना ज छे.
३. मूढ प्राणी लक्ष्मी वधे छे एने देखे छे, पण आयुष्य घटे छे–ते नथी देखतो; ने लक्ष्मी वगेरे मेळववा
पाछळ मोंघु मानव–जीवन गूमावी दे छे.
४. संयोगनी सगवडतामां अज्ञानी जीव एवो मूर्छाई गयो छे के, माथे अनंत जन्म–मरणना दुःखनो
भय झझूमी रह्यो छे–तेने ते देखतो नथी.
प. अरे जीव! एक क्षण विचार तो कर, के संयोगो वधवाथी तारा आत्मामां शुं वध्युं? भाई रे!
संयोगना वधवाथी आत्मानुं वधवापणुं मानवुं–ते तो मनुष्य देहने हारी जवा जेवुं छे.
६. हे जीव! तारा ज्ञानस्वरूप आत्मा साथे आ संयोगो एकमेक नथी; कां तो तारा जीवतां ज तने
छोडीने ए चाल्या जशे, अने कां तो मरण टाणे तुं तेने छोडीने चाल्यो जईश.–माटे तेनाथी भिन्नतानुं भान कर.
७. अंतरमां संयोगथी भिन्नतानो विचार कर के मारो आत्मा बधायथी जुदो, एकलो जन्म्यो ने एकलो
मरशे, संसारमां पण एकलो ज रखडे छे ने सिद्धि पण एकलो ज पामे छे. आम भिन्नतानुं भान करीने हे जीव!
तारा हितनो उपाय विचार.
८. अरेरे! मारो आत्मा मृत्युना मुखमां ऊभो छे, मृत्युना मुखमां पडेला आ जीवने जगतमां अन्य
कोई शरणभूत नथी; मारा आत्माना श्रद्धा–ज्ञान करीने तेमां स्थिर रहुं ते ज मने मृत्युना मुखमांथी ऊगारनार
छे, ने ते ज एक शरणभूत छे.
९. जेम संयोगोनी अनुकूळतामां मारुं सुख नथी, तेम गमे तेवा प्रतिकूळ संयोगो मने दुःखनुं कारण
नथी. जेणे अनुकूळ संयोगमां सुख मान्युं छे ते प्रतिकूळतामां दुःखी थया वगर रहेशे नहि, केम के तेनुं वलण ज
संयोग तरफ छे. संयोग तो एक क्षणमात्रमां पलटी जशे, माटे तेना आश्रये आत्मानी शांति नथी. आत्मानो
स्वभाव पोते सुखस्वरूप छे, ने ते निरंतर रहेनार छे, माटे तेना आश्रये ज आत्मानुं हित अने शांति छे–आम
पहेलांं हितना उपायनी खोज करीने तेनो निर्णय करवो जोईए––आवो संतोनो हितमार्गनो उपदेश
(ईष्टोपदेश) छे.
१०. अरे, अत्यार सुधी में मारुं हित न कर्युं, अहितमां ज जीवन नकामुं वीताव्युं. हवे मारुं हित केम
थाय–तेनो उपाय करुं. –आम अंतरमांथी हित माटेनी जिज्ञासा जागवी जोईए. भाई! ज्यां मरणना टाणां
आवशे त्यां लक्ष्मी शरणरूप नहि थाय, वैदो बचावी नहि शके, कुटुंबी कोई एक पगलुंय साथे नहि आवे.–ए
वखते शरणभूत तो तने तारो आत्मा ज थशे; माटे आत्मा शुं चीज छे तेनी ओळखाण अने प्रीति कर.