Atmadharma magazine - Ank 161
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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परमप्रभावक आत्मार्थी सत्पुरुष श्री कानजी स्वामीकी
सेवामें सादर समर्पित
सन्मान–पत्र
स्वामीजी!
हमारा सौभाग्य है कि हम सोनगढ़ के जिस महान् व्यक्तित्वके पुण्य सम्पर्ककी
चिरकालसे प्रतीक्षा कर रहे थे वह मनःकामना आज सफल हुई। अनादिसिद्ध निर्वाणभूमि
तीर्थराज श्री सम्मेदाचलकी बन्दना करनेके पवित्र संकल्पको लेकर आप सौराष्ट्रसे ५००
धार्मिक बन्धुओं और बहिनोंके साथ मार्गमें आनेवाले अनेक सिद्धक्षेत्रों व दूसरे तीर्थोंकी
बन्दना करते हुए डालमियानगर पधारे हैं। हमने आपकी लोक–कल्याणकारिणी अमृतमयी
अध्यात्मवाणीका रसास्वादन किया है। फलस्वरूप आज इस मंगलबेलामें हम सब आपके
प्रति बहुमान प्रकट करते हुए अपनेको धन्य अनुभव करते हैं।
आत्मार्थिन्!
२३ वर्षकी छोटी उम्रमें गृह–प्रपञ्चसे मुक्त हो आपने आत्मतत्त्वकी जिज्ञासावश अनेक
दुरूह ग्रन्थोंका अध्ययन और मनन कर वह तृप्ति नहीं प्राप्त की जो श्रीमदाचार्य
कुन्दकुन्दप्रणीत विश्वभारती के अनुपम रत्न श्री समयसार आदि ग्रन्थरत्नोंके स्वाध्याय
और मनन से आपने प्राप्त की हैं। परिणामस्वरूप आपको अपने प्रपञ्चबहुल जीवनका
परित्याग कर निश्चित ध्येय की सिद्धिके लिए ऐसी करवट लेनी पडी़ हैं जो मोहग्रस्त
संसारी प्राणियोंके लिए अनुपम उदाहरणके रूपमें सदा प्रसिद्ध रहेगी।
द्रढ़ श्रद्धानी!
वीतराग सर्वज्ञप्रणीत स्वावलम्बिनी वृत्तिको चरितार्थ करनेवाले और तिल–तुषमात्र
परिग्रहसे रहित निर्ग्रन्थ मार्ग पर आपकी द्रढ़ श्रद्धा हैं। आप अपने जीवनमें यह अच्छी
तरहसे अनुभव करते है कि रत्नत्रयपूत इस मार्ग पर चले बिना यह संसारी प्राणी मोक्षका
अधिकारी नहीं हो सकता।
आत्मदर्शिन्!
मोह और ममता के पङ्कमें निमग्न संसारी प्राणियों को हितका उपदेश देनेवाले
अनेक आत्मदर्शी महापुरुष इस भारत–भू पर अवतरित हुए हैं। आप भी अपने अतिशय
प्रभावक आध्यात्मिक प्रवचनों–द्वारा इन संसारी प्राणियोंको निरूपधि आत्मतत्त्वका
दिग्दर्शन कराते हुए यदा कदा यत्र तत्र भ्रमण करते रहते हैं। आपकी यह परम
कल्याणकारिणी वृत्ति अभिनन्दनीय हैं।
फागणः २४८३ ः १७ः