Atmadharma magazine - Ank 161
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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आत्मधर्म
वर्ष चौदमुं ः सम्पादकः फागण
अंक पांचमो रामजी माणेकचंद दोशी २४८३
ज्यां दोष थाय छे त्यां ज गुण भर्या छे.
ज्यां दोष थाय छे त्यां ज गुण भर्या छे.
ज्यां अल्पज्ञता छे त्यां ज सर्वज्ञतानुं सामर्थ्य पडयुं छे.
ज्यां दुःख थाय छे त्यां ज त्रिकाळ सुख गुण रहेलो छे.
ज्यां क्रोध थाय छे त्यां ज त्रिकाळी क्षमागुण भरेलो छे.
–आ रीते ‘क्षणिक दोष’ अने ‘त्रिकाळी गुण’ बंने एक साथे वर्ती रह्या छे,
तेमां गुणस्वभावने ओळखीने तेनुं अवलंबन लेतां दोष टळी जाय छे ने गुणनी
निर्दोष दशा प्रगटे छे.
आत्मानी क्षणिक हालतमां दोष थतां अज्ञानीने तो पोतानो आखोय
आत्मा ज दोषस्वरूप भासे छे, पण ते ज वखते आत्मानो स्वभाव गुणथी भरेलो
छे, ते तेने भासतो नथी,–दोषथी जराय भिन्नता भासती नथी, एटले ते दोषने
टाळी शकतो नथी. ज्ञानी तो क्षणिक दोष वखते पण पोताना त्रिकाळी गुणस्वभावने
दोषथी भिन्न जाणता थका, गुणना जोरे दोषनो नाश करी नांखे छे.