Atmadharma magazine - Ank 161
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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बे भाई
[शांतिनी शोधमां]
*
जेणे पोताना आत्मानुं हित करवुं होय तेने पहेलां अंदरमां खटक जागवी जोईए के अरे! मारा आत्माने
कई रीते शांति थाय? मारा आत्माने कोण शरणरूप छे!! संतो कहे छे के आ देह के राग कोई तारुं शरण नथी;
प्रभो! अंदर एक समयमां ज्ञानानंदथी परिपूर्ण भरेलो तारो आत्मा ज तने शरण छे; तेने ओळख, भाई!
बे सगा भाई होय, बेय नरकमां एक साथे होय, एक समकिती होय ने बीजो मिथ्याद्रष्टि होय. त्यां
समकितीने तो नरकनी घोर प्रतिकूळतामां पण चैतन्यना आनंदनुं अंशे वेदन पण साथे वर्ती रह्युं छे....ने मिथ्याद्रष्टि
एकला संयोगोनी सामे जोईने दुःखनी वेदनामां तरफडे छे...तेना भाईने पूछे छे के, ‘अरे भाई! कोई शरण!!
आ घोर दुःखमां कोई सहायक!! ..... कोई आ वेदनाथी छोडावनार!!! त्यां समकिती भाई कहे छे के–अरे
बंधु! कोई सहायक नथी; अंदरमां भगवान चैतन्य ज आनंदथी भरेलो छे तेनी भावना ज आ दुःखथी
बचावनार छे;
चैतन्यनी भावना विना बीजुं कोई दुःखथी बचावनार नथी, बीजुं कोई सहायक नथी. आ देह, ने
आ प्रतिकूळ संयोगो ए बधायथी पार चैतन्यस्वरूपी आत्मा छे,–आवा भेदज्ञाननी भावना सिवाय जगतमां बीजुं
कोई दुःखथी बचावनार नथी. कोई शरण नथी; माटे भाई! एक वार संयोगने भूली जा....ने अंदर चैतन्य तत्त्व
आनंदस्वरूप छे तेनी सन्मुख जो. ते एक ज शरण छे.
पूर्वे आत्मानी दरकार करी नहि ने पाप करतां पाछुं
वाळीने जोयुं नहि तेथी आ नरकमां अवतार थयो....हवे तो आ ज स्थितिमां हजारो वर्षनुं आयुष्य पूरुं कर्ये
छूटको....संयोग नहि फरे, तारुं लक्ष फेरवी नांख! संयोगथी आत्मा जुदो छे तेना उपर लक्ष कर. संयोगमां तारुं
दुःख नथी; तारा आनंदने भूलीने तें ज मोहथी दुःख ऊभुं कर्युं छे, माटे एक वार संयोगने अने आत्माने भिन्न
जाणीने, संयोगनी भावना छोड ने चैतन्यमूर्ति आत्मानी भावना कर. हुं तो ज्ञानमूर्ति–आनंदमूर्ति छुं. आ संयोग
अने आ दुःख बंनेथी मारो आत्मस्वभाव जुदो, ज्ञानआनंदनी मूर्ति छे,–आम आत्मानो निर्णय करीने तेनी
भावना करवी ते ज दुःखना नाशनो उपाय छे. चैतन्यनी भावनामां दुःख कदी प्रवेशी शकतुं नथी. ‘ज्यां दुःख
कदी न प्रवेशी शकतुं त्यां निवास ज राखीए...’
चैतन्यस्वरूप आत्मानी भावनामां आनंदनुं वेदन छे, तेमां
दुःखनो प्रवेश नथी....एवा चैतन्यमां एकाग्र थईने निवास करवो ते ज दुःखथी छूटकारानो उपाय छे. कषायोथी
संतप्त आत्माने पोताना शुद्ध स्वरूपनुं चिंतन ज तेनाथी छूटवानो उपाय छे; माटे हे बंधु! स्वस्थ थईने तारा
आत्मानी भावना कर.....तेना चिंतनथी तारा दुःखो क्षण मात्रमां शांत थई जशे.
धर्मी जाणे छे के अहो! मारा चैतन्यनी छाया एवी शांत–शीतळ छे के तेमां मोह–सूर्यनां संतप्त
किरणो प्रवेशी शकतां नथी, कोई संयोगो पण तेमां प्रवेशी शकता नथी; माटे मोहजनित विभावोना
आतापथी बचवा हुं मारा चैतन्य तत्त्वनी शांत....उपशांत....आनंद झरती छायामां ज जाउं छुं....मारा
चैतन्यस्वभावनी ज भावना करुं छुं.
(–समाधिशतक गा. ३९ उपर पू. गुरुदेवना प्रवचनमांथी)
ः ४ः आत्मधर्मः १६१