प्रभो! अंदर एक समयमां ज्ञानानंदथी परिपूर्ण भरेलो तारो आत्मा ज तने शरण छे; तेने ओळख, भाई!
एकला संयोगोनी सामे जोईने दुःखनी वेदनामां तरफडे छे...तेना भाईने पूछे छे के, ‘अरे भाई! कोई शरण!!
आ घोर दुःखमां कोई सहायक!! ..... कोई आ वेदनाथी छोडावनार!!! त्यां समकिती भाई कहे छे के–अरे
बंधु! कोई सहायक नथी; अंदरमां भगवान चैतन्य ज आनंदथी भरेलो छे तेनी भावना ज आ दुःखथी
बचावनार छे; चैतन्यनी भावना विना बीजुं कोई दुःखथी बचावनार नथी, बीजुं कोई सहायक नथी. आ देह, ने
आ प्रतिकूळ संयोगो ए बधायथी पार चैतन्यस्वरूपी आत्मा छे,–आवा भेदज्ञाननी भावना सिवाय जगतमां बीजुं
कोई दुःखथी बचावनार नथी. कोई शरण नथी; माटे भाई! एक वार संयोगने भूली जा....ने अंदर चैतन्य तत्त्व
आनंदस्वरूप छे तेनी सन्मुख जो. ते एक ज शरण छे. पूर्वे आत्मानी दरकार करी नहि ने पाप करतां पाछुं
वाळीने जोयुं नहि तेथी आ नरकमां अवतार थयो....हवे तो आ ज स्थितिमां हजारो वर्षनुं आयुष्य पूरुं कर्ये
छूटको....संयोग नहि फरे, तारुं लक्ष फेरवी नांख! संयोगथी आत्मा जुदो छे तेना उपर लक्ष कर. संयोगमां तारुं
दुःख नथी; तारा आनंदने भूलीने तें ज मोहथी दुःख ऊभुं कर्युं छे, माटे एक वार संयोगने अने आत्माने भिन्न
जाणीने, संयोगनी भावना छोड ने चैतन्यमूर्ति आत्मानी भावना कर. हुं तो ज्ञानमूर्ति–आनंदमूर्ति छुं. आ संयोग
अने आ दुःख बंनेथी मारो आत्मस्वभाव जुदो, ज्ञानआनंदनी मूर्ति छे,–आम आत्मानो निर्णय करीने तेनी
भावना करवी ते ज दुःखना नाशनो उपाय छे. चैतन्यनी भावनामां दुःख कदी प्रवेशी शकतुं नथी. ‘ज्यां दुःख
कदी न प्रवेशी शकतुं त्यां निवास ज राखीए...’ चैतन्यस्वरूप आत्मानी भावनामां आनंदनुं वेदन छे, तेमां
दुःखनो प्रवेश नथी....एवा चैतन्यमां एकाग्र थईने निवास करवो ते ज दुःखथी छूटकारानो उपाय छे. कषायोथी
संतप्त आत्माने पोताना शुद्ध स्वरूपनुं चिंतन ज तेनाथी छूटवानो उपाय छे; माटे हे बंधु! स्वस्थ थईने तारा
आत्मानी भावना कर.....तेना चिंतनथी तारा दुःखो क्षण मात्रमां शांत थई जशे.
आतापथी बचवा हुं मारा चैतन्य तत्त्वनी शांत....उपशांत....आनंद झरती छायामां ज जाउं छुं....मारा
चैतन्यस्वभावनी ज भावना करुं छुं.