मनुष्य मटीने झाडनी छायारूपे थई जतो नथी. तेम संसार परिभ्रमणमां आत्मा एक पछी एक शरीरो धारण
करे छे ने छोडे छे, अनेक शरीरोमांथी पसार थवा छतां ‘हुं आ शरीररूपे थई गयो’ एवी कल्पना पण ज्ञानीने
थती नथी. देव–मनुष्य–हाथी–बळद वगेरे शरीरोमांथी पसार थवा छतां आत्मा तो सोंसरवट तेने ते ज
एकस्वरूपे रह्यो छे, आत्मा चेतन मटीने जड शरीररूपे थई गयो नथी. भाई! आम स्पष्टपणे तारुं स्वरूप
देहथी अत्यंत जुदुं छे, तो जुदाने जुदारूपे मानवामां तने शुं वांधो आवे छे!! ! जेम सडक उपर जतो माणस
झाडना पडछाया उपरथी चाल्यो जाय छे, त्यां ते माणसनो स्वभाव कोई छायारूपे थतो नथी. माणस तो बधी
छायाने ओळंगीने सोंसरवो नीकळी जाय छे, तेम अनादिथी संसार–सडकमां चालतो आत्मा एक पछी एक
अनेक शरीरोमांथी पसार थयो, पण ते कदी कोई शरीररूपे थयो नथी, सदा सळंगपणे एक स्वरूपे पोतामां ज
रह्यो छे. बधाय आत्मामां आवी शक्ति छे के ते स्वधर्ममां ज रहे छे. आवा निजधर्मने जे ओळखे तेने शरीरनो
संबंध छूटीने अशरीरी मुक्तदशा थया विना रहे नहीं.
आत्मा करे अथवा शरीरनी क्रियाथी आत्माने धर्म थाय–एम जेणे मान्युं तेणे आत्माने ‘स्वधर्मव्यापक’ न
मान्यो पण जड शरीरना धर्मोमां व्यापक मान्यो. एटले के आत्माने जडरूप मान्यो, ने जडने आत्मारूप मान््युं,
जीवने अजीव मान्यो अने अजीवने जीव मान्यो–ते मिथ्यात्व छे. अने मिथ्यात्व ते ज अधर्मनी महान् क्रिया छे.
आत्मा तो ज्ञानादि स्वधर्मोमां ज रहेलो छे, ने शरीरथी तो जुदो ज छे–एम बंनेना धर्मोने भिन्न भिन्न
ओळखीने, स्वधर्ममां व्यापक आत्मानी श्रद्धा करवी ते अपूर्व सम्यक्त्व छे. ते सम्यक्त्व थतां आत्मा पोतानी
निर्मळ पर्यायोमां व्यापे छे; अने ते ज धर्मनी क्रिया छे.
स्वभाव तो मारा अनंतधर्मोमां ज व्यापेलो छे, विकारमां के परमां व्यापवानो मारो स्वभाव नथी” –एवुं
सम्यग्ज्ञान थतां साधक जीव पोतानी निर्मळ पर्यायोमां ज तन्मय थईने तेमां व्यापे छे, रागादिमां पण ते
तन्मय थईने व्यापतो नथी; तेने रागादि टळीने अल्पकाळमां मुक्तदशा थई जाय छे.
अनादिथी अज्ञानीने तेनुं भान नथी, तेथी पर्यायमां तेने निजधर्मनो अनुभव थतो नथी. माटे तेने कहे छे के तुं
तारा निजधर्मने ओळखीने तेनो अनुभव कर, तो तने पर्यायमां सम्यग्दर्शनादि धर्म थाय.
तादात्म्यरूपे एकमेक छे, जुदो नथी, तेथी ज्ञानने सेवे ज छे; तो पछी तेने ज्ञाननी उपासना करवानो उपदेश केम
आपवामां आवे छे?
ज्ञाननी उत्पत्ति थाय छे. एटले के स्वभावथी तो आत्मा सदाय ज्ञानस्वरूप होवा छतां, पर्यायमां अनादिथी
अज्ञानने सेवी रह्यो छे, ज्ञानस्वभावनी सन्मुख थईने पर्यायमां तेनुं सेवन कदी एक क्षण पण कर्युं नथी. अने
ज्यां सुधी पर्यायमां ज्ञानस्वभावनुं सेवन न करे त्यां सुधी ते आत्मा अज्ञानी छे; ज्यारे अंतर्मुख थईने
पर्यायने ज्ञानस्वभावमां एकाकार करीने तेनुं सेवन (श्रद्धा–ज्ञानलीनता) करे त्यारे आत्मा ज्ञानी थाय छे. ए
रीते पर्यायमां ज्ञान नवुं प्रगटे छे. तेम अहीं आत्माने स्वधर्मव्यापक कह्यो तेमां पण ए