निर्मळ परिणमन थाय अने पर्यायमां धर्म प्रगटे. आ रीते निर्मळ पर्यायने साथे भेळवीने आ शक्तिओनुं
वर्णन छे–ते वात घणी वार स्पष्ट करवामां आवी छे. निर्मळ पर्यायने साथे भेळव्या वगर शक्तिनी प्रतीत करी
कोणे? प्रतीत करवानुं कार्य तो निर्मळ पर्यायमां ज थाय छे; एटले निर्मळ पर्याय भेगी भेळवीने प्रतीत करे तेने
ज आत्मानी साची प्रतीत थाय छे. पर्यायमां जरा पण निर्मळता थया वगर एकली शुद्ध शक्तिनी प्रतीत करवा
जाय तो तेने साची प्रतीत थती नथी, पण एकांत थई जाय छे.
लागे. –जुओ, आ मूढ जीवोनी वात! तेणे तो आत्माने शरीरना धर्मरूप थई गयेलो ज मान्यो छे. ज्यारे
भेंसनो आत्मा ते शरीरमां हतो त्यारे पण ते शरीरनी क्रियाना कारणे तेने पाप नहोतुं लागतुं. शरीरना चामडा
आत्माए क्यारे कर्यां छे के तेनुं पाप आत्माने लागे? शरीर आत्माने कारणे थयुं नथी, पण परमाणुनी रचना
छे, आत्मानो धर्म के पाप–पुण्य ते शरीरमां नथी रहेता. शरीररहित आत्मा त्रिकाळ पोताना स्वरूपमां छे तेने
जाण्या वगर शरीरादिने खरेखर ‘वोसरावी’ शकाय नहि. “कायाथी करेला पापने हुं वोसरावुं छुं” –ए तो
चैतन्यस्वभावना भानपूर्वक काया तरफनुं लक्ष छूटी जाय तेनी वात छे. तेने बदले अज्ञानी तो शरीरथी ज पाप
थवानुं माने छे ने शरीरने हुं वोसरावुं (छोडुं) एम माने छे, एटले ते खरेखर शरीरने वोसरावतो नथी पण
उलटो शरीर साथे एकताबुद्धि करीने मिथ्यात्वने सेवे छे, ने आत्माना सम्यग्दर्शनादि धर्मने वोसरावे छे. भाई,
पहेलांं काया साथेनी एकत्वबुद्धि तो छोड, ने कायाथी भिन्न आत्माने तो जाण, –पछी तने खबर पडशे के
कायाने वोसराववी एटले शुं? काया ते ज हुं–एम कायाने जे पोतानी माने ते कायाने वोसरावशे क्यांथी? काया
ते हुं नथी, हुं तो मारा ज्ञानादि अनंतधर्मोमां ज रहेलो छुं, कायापणे हुं कदी थयो ज नथी, कार्मणकायमां पण हुं
कदी रह्यो नथी, हुं तो मारी चैतन्यकायामां ज सदाय रह्यो छुं–आ प्रमाणे देहथी भिन्न चैतन्यतत्त्वनुं जे ज्ञान करे
तेणे श्रद्धा–ज्ञान अपेक्षाए कायाने वोसरावी दीधी; माटे हे जीव! शरीरथी अत्यंत भिन्न अने पोताना अनंत
धर्मोथी सदाय अभिन्न एवा तारा स्वभावने एवो नक्की कर के जेथी शरीरनो संबंध छूटीने अशरीरी सिद्धदशा
थये छूटको थाय.
पण कांई जडमां तो रह्यो नथी, ते पोताना अज्ञानभावमां रह्यो छे. एक ठेकाणे पावैया लोकोमां एवो रिवाज के
ज्यारे नवा मकाननुं वास्तु ल्ये त्यारे बधा भेगा थईने कूटता कूटता ते मकानमां जाय. –जुओ, आ नपुंसकनुं
वास्तु!! तेम अनंतधर्मस्वरूप चैतन्य स्वभावनी सन्मुख थईने तेमां वास करवाना पुरुषातनथी जे रहित छे
एवा मूढ–अज्ञानी जीवो चैतन्यनुं वास्तु छोडीने, जडमां ने विकारमां पोतानो वास मानी रह्या छे. तेने समजावे
छे के अरे जीव! ते तारो वास नथी, विकारमां वसवानो तारो स्वभाव नथी, तारो स्वभाव तो तारा श्रद्धा–
ज्ञान–आनंद वगेरे अनंतधर्मोमां वसवानो छे; माटे तारा स्वभावने ओळखीने तेमां वास कर, –तेनी श्रद्धा–
ज्ञान–एकाग्रता कर; ने विकारनी वासना छोड. पोताना अनंतधर्मोमां पोतानुं वास्तु छे तेने न मानतां, जड
शरीर वगेरेमां पोतानो वास जे माने छे ते स्थूळ अज्ञानी छे तेने जैनधर्मनी गंध पण नथी, ते तो अजैनधर्मी
छे, एटले के मिथ्याद्रष्टि छे. ससला जेवो पोचो के मगर जेवो कठण, रींछ जेवो काळो के हंस जेवो धोळो आत्मा
कदी थयो ज नथी, आत्मा तो पोताना अनंत धर्मोमां ज रह्यो छे. ‘अनंतधर्मोमां आत्मा रह्यो छे’ एम कहेतां
अनंत–धर्मो अने तेमां रहेनारो आत्मा–एम जुदी जुदी बे चीज न समजवी, परंतु आत्मा पोते ज
अनंतधर्मस्वरूप छे; अनंतधर्मोथी भिन्न बीजुं कांई आत्मतत्त्व नथी. आवा अनंतधर्मस्वरूप एकाकार पोताना
आत्माने ओळखवो ते अनेकान्त छे ने ते अनेकान्तनुं फळ परम अमृत छे एटले के आत्माने ओळखीने तेनो
अनुभव करतां परम आनंदरूप अमृतनो स्वाद अनुभवमां आवे छे.