आंबा जेवो मीठो थई जतो नथी; भिन्न भिन्न अनेक ज्ञेयोने जाणवा छतां पोते तो पोताना ज्ञानधर्मरूपे ज रहे
छे. अज्ञानी पोताना ज्ञानधर्मने भूलीने, जे जे परज्ञेयोने जाणे तेने ज पोतानुं स्वरूप मानी ल्ये छे.
पोतानी अवस्थामां क्षणे क्षणे अनादिथी रागादि करतो आवे छे छतां आत्मानो स्वभाव रागमय थई गयो
नथी. घडीकमां राग, घडीकमां द्वेष, घडीकमां हर्ष ने घडीकमां गमगीनी, घडीकमां अशुभ ने घडीकमां शुभ–एम
अनादिकाळथी जुदा जुदा विकारीभावो बदलाया करे छे, एक ने एक विकारीभाव सळंगपणे रहेता नथी, पण
आत्मा पोताना अनंतधर्मो सहित सळंगपणे अनादि–अनंत एकरूप वर्ते छे, माटे विकार तेनुं वास्तविक स्वरूप
नथी. अनंतधर्मोमां व्यापवापणुं त्रिकाळ छे ते ज वास्तविक स्वरूप छे. आवा स्वरूपने ओळखे तो पर्यायमांथी
रागादिनुं व्यापवापणुं छूटी जाय ने निर्मळता व्यापे.
वेदन छे. “मारा आत्मा सदाय दर्शन–ज्ञान–चारित्र–आनंद वगेरे मारा निजधर्मोमां ज रहेलो छे” एम श्रद्धा
करे तेने दर्शन–ज्ञान–चारित्र–आनंद वगेरे बधाय धर्मोनुं शुद्ध परिणमन थया विना रहे नहि.
आत्मा कदी बहार रहेतो नथी. आत्मा शरीरमां तो नथी रह्यो, पण एकला रागादिमां रहे तेने पण खरेखर
आत्मा कहेता नथी. आत्मा तो पोताना अनंतधर्मो अने तेनी निर्मळ पर्यायोमां रहेनार छे. आवा स्वरूपे
ओळखे तो ज आत्माने ओळख्यो छे.
सात धातुनुं ढींगलुं छे, ने आ भगवान आत्मा तो चैतन्यधातुनो पिंड छे. एकबीजाना संयोगमां रह्या तेथी
आत्मा शरीरमां रह्यो एम लोको बोले छे, पण खरेखर तो अत्यारे पण आत्मा पोताना गुण–पर्यायरूप
धर्मोमां ज रह्यो छे. पोताना धर्मोने आत्मा कदी पण छोडतो नथी, ने शरीरादिने आत्मा कदी पण ग्रहतो नथी.
आत्मा कांई अचेतन नथी, आत्मा तो चैतन्यमूर्ति छे. अचेतन–शरीरमां चैतन्यमूर्ति आत्मा केम रहे? आत्मा
तो पोताना चैतन्यधर्ममां ज रह्यो छे. अहो, देह अने आत्मानुं आवुं स्पष्ट भिन्नपणुं होवा छतां, मोहने लीधे
अज्ञानी जीवने तेनी भिन्नता देखाती नथी.
प्रभुना पुत्र बाहुबलिकुमार पण कामदेव हता, तेमने देहथी भिन्न चिदानंदस्वरूपी आत्मानुं भान हतुं, छ खंडमां
रूपाळुं शरीर होवा छतां ते शरीरमां आत्मबुद्धि स्वप्नेय तेमने न हती, जेम थांभलाथी आत्मा जुदो छे तेम
देहथी पण आत्माने अत्यंत जुदो जाणता हता; अमारो आत्मा आ रूपाळा देहमां रह्यो छे–एवी बुद्धि स्वप्ने
पण न हती, आत्माना स्वधर्मना भानमां देहादिथी तो उदास–उदास हता, स्वप्नेय तेमां सुख भासतुं न हतुं.
जेम कोई मुसाफर रस्ता उपरथी जतो होय त्यां एक पछी एक झाडनी छायामांथी पसार थतो जाय छे, पण हुं
आ झाडनी छायारूपे थई गयो–एवी कल्पना तेने थती नथी; आंबा, अशोक, चंपा, जांबुडा, द्राक्ष, सोपारी,
नाळियेरी