धर्मोरूपे ज रह्यो छे. आ रीते ‘सर्व शरीरोमां एक स्वरूपात्मक एवी स्वधर्मव्यापकत्व शक्ति आत्मामां छे. ’
एटले शरीरना धर्मरूपे न थतां आत्मा पोताना धर्मोमां ज रहे छे. अनादिथी संसारमां रखडतां रखडतां अनंत
शरीरो जीवे धारण कर्या पण ते बधामां तेनुं स्वरूप तो एक ज रह्युं छे, ते कदी कोई शरीरना धर्ममां व्यापीने
रह्यो नथी पण पोताना निजधर्मोमां व्यापीने एक स्वरूपे ज रह्यो छे. मनुष्यदेह होय त्यां अज्ञानीने देहबुद्धिथी
एम लागे छे के ‘हुं मनुष्य छुं. ’ तिर्यंचनो देह होय त्यां एम लागे छे के ‘हुं तिर्यंच छुं’ –एम जे जे शरीर होय
ते शरीररूपे ज पोताने माने छे; अहीं आचार्यप्रभु समजावे छे के अरे जीव! तुं शरीररूपे थई गयो नथी. जुद
जुदा अनंत शरीरो धारण कर्या ने छूटया छतां तारो आत्मा तो ते ने ते ज रह्यो छे. मनुष्य अवतार वखते तुं
कांई मनुष्य शरीररूपे थई गयो नथी, तुं तो तारा ज्ञानादि अनंत धर्मोथी एकरूप छो. शरीरो अनंत बदलाई
गया पण तारा स्वरूपना धर्मो कांई बदली गया नथी. अनंतकाळ पहेलांं तारामां जे ज्ञानादि निजधर्मो हता ते
ज ज्ञानादि निजधर्मोमां अत्यारे पण तुं रह्यो छे, माटे तारा निजधर्मोने देख.
तो अचेतन–जड धर्ममां रहेलुं छे, एटले आत्मा तो जाणनार धर्मवाळो छे, ने शरीर तो कंई पण न जाणे एवा
जडधर्मवाळुं छे; आ रीते बंनेना धर्मो प्रगट भिन्न भिन्न छे. पोताना ज्ञानधर्मथी ते ते वखतना शरीरने जाणतां
‘आ शरीर ज हुं छुं’ एम मानीने अज्ञानी जीव पोताना ज्ञानधर्मने भूली जाय छे. देहने जाणवानो आत्मानो
स्वभाव छे पण पोते देहरूपे थई जाय–एवो आत्मानो स्वभाव नथी. पोते तो पोताना ज्ञानादि स्वभावरूप
धर्ममां ज रहे छे.