हता. आवा दिगंबर संत कहे छे के: अहो! जे जीवो आत्माना अतीन्द्रिय सुखने झंखी रह्या छे तेमने माटे हुं
कर्मथी भिन्न शुद्ध आत्मानुं स्वरूप बतावीश, के जे आत्माने जाणतां जरूर अतीन्द्रिय आनंद थाय. आत्मा पोते
अतीन्द्रिय आनंदनो सागर छे; जगतना अनंतकाळना भवभ्रमणना दुःखथी थाकीने जेने केवळ आत्माना
सुखनी ज स्पृहा जागी छे–एवा भव्य आत्माने माटे अहीं भिन्न आत्मानुं स्वरूप बतावीश.
संदेह जेने टळी गयो छे, ने आनंदनो उपाय बतावनार देव–गुरु–शास्त्रनी आस्था थई छे, तेथी आत्माना
सुखनो अभिलाषी थईने तेनो उपाय जाणवा आव्यो छे, एवा आत्माने अहीं भिन्न आत्मानुं स्वरूप कहीने
सुखनो उपाय बतावे छे. दुःख तो क्षणिक पर्यायमां छे, तेनो नाश थईने सुख प्रगट थशे;–क्यांथी? के आत्माना
स्वभावमां अतीन्द्रिय सुख छे तेमांथी ते प्रगटशे. सुख वर्तमानमां नथी ने त्रिकाळमां छे–एम अनेकान्त
जाणीने, ज्यां त्रिकाळ स्वभावनी सन्मुख थयो त्यां पर्यायमां पण सुख थयुं ने दुःख टळ्युं. परथी भिन्न आत्मानुं
स्वरूप जाणीने तेनी सन्मुख थवुं ते ज हितनो उपाय छे, माटे हितना कामी जीवने भिन्न आत्मानुं स्वरूप
आचार्यदेव बतावे छे.
नहि आत्मथी’ –एम आत्माना अतीन्द्रिय सुख सिवाय जगतमां बीजुं कांई जेने वहालुं नथी, केवळ आत्माना
आनंदनी ज जेने भावना छे, एवा भव्य जीवोने माटे भिन्न आत्मानुं स्वरूप हुं बतावीश–एम श्री
पूज्यपादस्वामी कहे छे.
तो पण तेनो जन्म सफळ नथी. सुख अने शांति तो अंदरथी आवे छे के बहारथी? अंतरना स्वभावमां शांति
छे तेमांथी ज शांति आवे छे, माटे तेनुं लक्ष करवुं ते ज सर्व शास्त्रनो सार छे. अने जेणे एवुं लक्ष कर्युं तेनो
अवतार सफळ छे.
तेनाथी, अने मारा आत्माना प्रचुर स्वसंवेदन वगेरेथी जे आत्मवैभव प्रगट्यो छे ते सर्व वैभवथी हुं शुद्ध
आत्मानुं स्वरूप कहीश. अहीं पण पूज्यपादस्वामी कहे छे के हुं कर्मादिथी भिन्न शुद्ध आत्मानुं स्वरूप कहीश.
अशुद्धताने तो जगत अनुभवी ज रह्युं छे, पण शुद्ध आत्माने कदी जाण्यो नथी, तेथी जे सुखनो अभिलाषी छे
तेणे तो शुद्ध आत्मानुं स्वरूप ज जाणवायोग्य छे. शुद्ध आत्मानुं स्वरूप ज आराध्य छे. आ समाधिशतकमां ज
आगळ ५३ मी गाथामां कहेशे के–जेने मोक्षनी अभिलाषा छे एवा जीवोए तो ज्ञान–आनंद–स्वरूप आत्मानी
ज कथा करवी, बीजा अनुभवी पुरुषोने पण ते ज पूछवुं, ते आत्मस्वरूपनी ज ईच्छा अर्थात् प्राप्तिनी भावना
करवी ने तेमां ज तत्पर थवुं, के जेथी अविद्यामय एवी अज्ञानदशा छूटीने ज्ञानमय निजपदनी प्राप्ति थाय.
आत्मार्थीने पोताना आत्मस्वरूपनी वात सिवाय बीजी वातमां रस न होय... तेने तो सर्व प्रकारे एक
आत्मस्वरूपनी ज प्राप्तिनो उद्यम कर्तव्य छे.
करवा योग्य छे, ते ज अभ्यासवा योग्य छे, ते ज उपार्जन करवा योग्य छे, ते ज जाणवा योग्य छे, ते ज कहेवा
योग्य छे, ते ज प्रार्थना करवा योग्य छे, ते ज शिक्षा योग्य (विनेय) छे, अने ते ज स्पर्शवा योग्य छे, –के जेथी
आत्मा सदा स्थिर रहे.