Atmadharma magazine - Ank 162
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 13 of 21

background image
: १२ : आत्मधर्म चैत्र : २४८३
करता, ने अनेक ऋद्धिओ तेमने प्रगटी हती, महान् बुद्धिना दरिया हता ने आत्मानी शांतिना अनुभवमां लीन
हता. आवा दिगंबर संत कहे छे के: अहो! जे जीवो आत्माना अतीन्द्रिय सुखने झंखी रह्या छे तेमने माटे हुं
कर्मथी भिन्न शुद्ध आत्मानुं स्वरूप बतावीश, के जे आत्माने जाणतां जरूर अतीन्द्रिय आनंद थाय. आत्मा पोते
अतीन्द्रिय आनंदनो सागर छे; जगतना अनंतकाळना भवभ्रमणना दुःखथी थाकीने जेने केवळ आत्माना
सुखनी ज स्पृहा जागी छे–एवा भव्य आत्माने माटे अहीं भिन्न आत्मानुं स्वरूप बतावीश.
मारे मारा आत्मानो अतीन्द्रिय आनंद प्राप्त करवो छे, अने ते मने जरूर प्राप्त थशे–एम आत्माना
सुखने जे लेवा मांगे छे तेने आ वात समजावे छे. ‘हुं अभव्य होईश, मने आत्मानो आनंद नहि मळे’ एवो
संदेह जेने टळी गयो छे, ने आनंदनो उपाय बतावनार देव–गुरु–शास्त्रनी आस्था थई छे, तेथी आत्माना
सुखनो अभिलाषी थईने तेनो उपाय जाणवा आव्यो छे, एवा आत्माने अहीं भिन्न आत्मानुं स्वरूप कहीने
सुखनो उपाय बतावे छे. दुःख तो क्षणिक पर्यायमां छे, तेनो नाश थईने सुख प्रगट थशे;–क्यांथी? के आत्माना
स्वभावमां अतीन्द्रिय सुख छे तेमांथी ते प्रगटशे. सुख वर्तमानमां नथी ने त्रिकाळमां छे–एम अनेकान्त
जाणीने, ज्यां त्रिकाळ स्वभावनी सन्मुख थयो त्यां पर्यायमां पण सुख थयुं ने दुःख टळ्‌युं. परथी भिन्न आत्मानुं
स्वरूप जाणीने तेनी सन्मुख थवुं ते ज हितनो उपाय छे, माटे हितना कामी जीवने भिन्न आत्मानुं स्वरूप
आचार्यदेव बतावे छे.
अहो श्रोता केवा छे? के जेने मात्र आत्माना सुखनी ज स्पृहा छे, जगतना बाह्य विषयोनी अभिलाषा
नथी; ‘काम एक आत्मार्थनुं, बीजो नहि मन रोग’ –आवा पात्र श्रोताने सुखनो उपाय बतावे छे– ‘जगत ईष्ट
नहि आत्मथी’ –एम आत्माना अतीन्द्रिय सुख सिवाय जगतमां बीजुं कांई जेने वहालुं नथी, केवळ आत्माना
आनंदनी ज जेने भावना छे, एवा भव्य जीवोने माटे भिन्न आत्मानुं स्वरूप हुं बतावीश–एम श्री
पूज्यपादस्वामी कहे छे.
बार अंग–चौद पूर्वनो सार ए छे के कर्मथी भिन्न–संयोगथी भिन्न, ज्ञानआनंदस्वरूप छे–तेनुं लक्ष करवुं
ने तेमां ठरवुं. जेणे आवा आत्मानुं लक्ष कर्युं तेनो जन्म सफळ छे. आवा लक्ष वगर भले द्रव्यलिंगी साधु थाय
तो पण तेनो जन्म सफळ नथी. सुख अने शांति तो अंदरथी आवे छे के बहारथी? अंतरना स्वभावमां शांति
छे तेमांथी ज शांति आवे छे, माटे तेनुं लक्ष करवुं ते ज सर्व शास्त्रनो सार छे. अने जेणे एवुं लक्ष कर्युं तेनो
अवतार सफळ छे.
समयसारनी पांचमी गाथामां पण आचार्यदेव कुंदकुंद भगवाने कह्युं के हुं एकत्व–विभक्त शुद्ध आत्मानुं
स्वरूप मारा निज वैभवथी बतावीश. मने मारा गुरुओए अनुग्रहपूर्वक जे शुद्ध आत्मानो उपदेश आप्यो छे
तेनाथी, अने मारा आत्माना प्रचुर स्वसंवेदन वगेरेथी जे आत्मवैभव प्रगट्यो छे ते सर्व वैभवथी हुं शुद्ध
आत्मानुं स्वरूप कहीश. अहीं पण पूज्यपादस्वामी कहे छे के हुं कर्मादिथी भिन्न शुद्ध आत्मानुं स्वरूप कहीश.
अशुद्धताने तो जगत अनुभवी ज रह्युं छे, पण शुद्ध आत्माने कदी जाण्यो नथी, तेथी जे सुखनो अभिलाषी छे
तेणे तो शुद्ध आत्मानुं स्वरूप ज जाणवायोग्य छे. शुद्ध आत्मानुं स्वरूप ज आराध्य छे. आ समाधिशतकमां ज
आगळ ५३ मी गाथामां कहेशे के–जेने मोक्षनी अभिलाषा छे एवा जीवोए तो ज्ञान–आनंद–स्वरूप आत्मानी
ज कथा करवी, बीजा अनुभवी पुरुषोने पण ते ज पूछवुं, ते आत्मस्वरूपनी ज ईच्छा अर्थात् प्राप्तिनी भावना
करवी ने तेमां ज तत्पर थवुं, के जेथी अविद्यामय एवी अज्ञानदशा छूटीने ज्ञानमय निजपदनी प्राप्ति थाय.
आत्मार्थीने पोताना आत्मस्वरूपनी वात सिवाय बीजी वातमां रस न होय... तेने तो सर्व प्रकारे एक
आत्मस्वरूपनी ज प्राप्तिनो उद्यम कर्तव्य छे.
वळी “योगसार” मां पण कहे छे के–विद्वान् पुरुषोए आ एक चैतन्यस्वरूप आत्मा ज निश्चल मनथी
पढवा योग्य छे, ते ज ध्यान करवा योग्य छे, ते ज आराधवा योग्य छे, ते ज पूछवा योग्य छे, ते ज श्रवण
करवा योग्य छे, ते ज अभ्यासवा योग्य छे, ते ज उपार्जन करवा योग्य छे, ते ज जाणवा योग्य छे, ते ज कहेवा
योग्य छे, ते ज प्रार्थना करवा योग्य छे, ते ज शिक्षा योग्य (विनेय) छे, अने ते ज स्पर्शवा योग्य छे, –के जेथी
आत्मा सदा स्थिर रहे.