Atmadharma magazine - Ank 162
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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चैत्र : २४८३ आत्मधर्म : १३ :
जुओ, अहीं घणा बोलथी एक आत्माने ज सर्व प्रकारे उपादेय कह्यो छे.
जगतना जीवोने–जेने सुख जोईतुं होय तेणे–आ परथी भिन्न शुद्ध आत्मा ज जाणवा योग्य छे, तेने
जाण्या विना सुख कदी थाय नहि. चैतन्यस्वरूप आत्मानी सन्मुख थवुं ते ज सुखनो उपाय छे, ने ते माटे ज
शास्त्रोमां संतोनो उपदेश छे. सर्व उपदेशनुं रहस्य शुं? के शुद्ध आत्मानी सन्मुख थईने तेने जाणवो. ते ज सर्व
शास्त्रोनो सार छे. आ सिवाय बहारना बीजा उपायथी सुख थवानुं जे कहेता होय ते उपदेशक पण साचा नथी,
ने तेनो उपदेश ते हितोपदेश नथी. हितोपदेश तो आ छे के तुं तारा शुद्ध आत्माने जाणीने तेनी सन्मुख था.
आगमथी, अनुमानथी ने अनुभवथी शुद्ध आत्मानुं स्वरूप जाणीने मारी शक्तिथी हुं ते कहीश; जेने
शुद्धात्मानी जिज्ञासा छे–आत्माना आनंदनी जिज्ञासा छे–एवा भव्यजीवो आ शुद्धात्माने जाणो. मने मारुं सुख
केम थाय, मारा आत्मामां शांतिनुं वेदन केम थाय–एवी जेना अंतरनी ऊंडी अभिलाषा छे ते जीवने अहीं शुद्ध
आत्मानुं स्वरूप संभळावे छे.
आगममां शुद्ध आत्मानुं स्वरूप केवुं बताव्युं छे?
‘एको मे सासदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो।
सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा।।’
मारो सुशाश्वत एक दर्शनज्ञानलक्षण जीव छे;
बाकी बधा संयोगलक्षण भाव मुजथी बाह्य छे.
मारो आत्मा एक शाश्वत ज्ञानदर्शनलक्षणरूप छे, ने
बाकीना सर्वे संयोगलक्षणरूप भावो माराथी बाह्य छे.
आ रीते कुंदकुंदाचार्यदेव वगेरे संतोए, नियमसार, समयसारादि परम आगमोमां शुद्धात्मानुं स्वरूप जे
प्रमाणे कह्युं छे, ते प्रमाणे जाणीने तेना अनुसार हुं शुद्धआत्मानुं स्वरूप कहीश.
वळी कहे छे के हुं लिंग एटले के युक्ति अने अनुमानवडे देहादिथी भिन्न आत्मानुं स्वरूप कहीश. ते आ
प्रमाणे: शरीरादिथी आत्मा भिन्न छे केमके ते भिन्न लक्षणथी लक्षित छे; जेओ भिन्न लक्षणवडे लक्षित थाय छे
तेओ भिन्न होय छे, –जेमके जळ अने अग्निना लक्षण (शीत अने उष्ण) भिन्न भिन्न होवाथी तेओ प्रसिद्धपणे
जुदा छे. आत्मा उपयोगस्वरूपथी लक्षित छे अने शरीरादि तेनाथी विरुद्ध एवा अनुपयोग–जड स्वरूपे लक्षित
छे, तेथी तेने जुदापणुं छे. ए ज प्रमाणे रागादि भावोथी पण ज्ञाननी भिन्नता छे, केमके बंनेना लक्षण जुदा छे.
–ईत्यादि प्रकारे युक्ति तथा अनुमानथी पण हुं भिन्न आत्मानुं स्वरूप कहीश. –कोने? के जे जीव केवळ
अतीन्द्रिय सुखनो अभिलाषी छे तेने.
[वर स. २४८२, वशख वद पचम]

जे जीव आत्माना अतीन्द्रिय सुखनो अभिलाषी छे तेने माटे हुं शुद्ध आत्मानुं स्वरूप कहीश–एम
पूज्यपादस्वामी आ त्रीजी गाथामां प्रतिज्ञा करे छे. कई रीते कहीश? के आगमथी, युक्तिथी–अनुमानथी अने
मारा अंतरना अनुभवथी मारी आत्मशक्ति अनुसार हुं शुद्ध आत्मानुं कर्मादिथी भिन्न स्वरूप कहीश. कोने माटे
कहीश? के जेने आत्माना सुखनी अभिलाषा छे तेने माटे कहीश.
मारो आत्मा अतीन्द्रिय आनंदस्वरूप छे, मने मारो आनंद केम प्राप्त थाय–एम जेने धगश जागी होय
एवा जीवने संबोधीने आत्मानुं स्वरूप हुं कहीश. जेने संसारनी के पुण्यनी अभिलाषा छे एवा जीवोने तो
भिन्न आत्मानुं स्वरूप समजवानी जिज्ञासा ज नथी, एटले एवा जीवोने श्रोता तरीके लीधा ज नथी.
मारे तो आत्मानो आनंद जोईए छे, कर्मना संबंध वगरनो–ईन्द्रियना विषयोना संबंध वगरनो, केवळ
आत्मानो अतीन्द्रिय आनंद मारे जोईए छे, –आवी जेने झंखना थई छे तेने माटे कर्मादिथी भिन्न आत्मानुं
स्वरूप बतावे छे, केम के एवा आत्मानुं स्वरूप जाणवाथी ज अतीन्द्रिय सुख थाय छे; माटे आगमथी, युक्तिथी
ने अनुभवथी आवा शुद्ध आत्मानुं स्वरूप जाणवा योग्य छे.