Atmadharma magazine - Ank 162
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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चैत्र : २४८३ आत्मधर्म : १५ :
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आ तीर्थंकर भगवानो टेलिफोन आव्यो छे के हे जीव! तुं देहथी भिन्न
चैतन्यस्वरूप छो. तारो आत्मा आनंद स्वभावथी भरेलो छे. तेनुं भान करतां
अंतरमां अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे तेनुं नाम धर्म छे; माटे तुं तेनुं भान कर.
[धंधूकामां पू. गुरुदेवनुं प्रवचन: कारतक वद पांचम]


‘आ ‘पद्मनंदी’ अध्यात्मशास्त्र छे.
आ देहमां रहेलो आत्मा ज्ञानस्वरूप छे. तेने जाणीने जेओ सर्वज्ञ थया, तेमनी वाणीमां आत्मानुं जे
वास्तविक स्वरूप कह्युं ते संतोए आ अध्यात्मशास्त्रमां बताव्युं छे. आत्मानुं वास्तविक स्वरूप समज्या वगर
जीव चार गतिमां अनंतकाळथी परिभ्रमण करी रह्यो छे. श्रीमद् राजचंद्र कहे छे के–
जे स्वरूप समज्या विना पाम्यो दुःख अनंत
समजाव्युं ते पद नमुं श्री सद्गुरु भगवंत. (१)
आत्मानुं वास्तविक स्वरूप समज्या विना जीव चार गतिमां अनंत दुःख पाम्यो. ते आत्मस्वरूप जेमणे
समजाव्युं एवा श्री सद्गुरुभगवानने नमस्कार हो.
भाई! ज्ञानीओए जेवो चिदानंद आत्मा बताव्यो छे तेवो जाण्या वगर आ चोराशी लाख जीवयोनिमां
तुं बधा अवतार करी चूक्यो, ने तेमां तुं बहु दुःखी थयो. जुओ, पैसा वगर दुःखी थयो–एम न कह्युं, पण
आत्मज्ञान वगर ज दुःखी थयो. अज्ञानने लीधे चार गतिना अनंत दुःख भोगव्या, माटे हे जीव! हवे
सत्समागमे आत्मानी समजण कर.
अहीं कहे छे के जीवने आत्मज्ञाननी प्राप्ति बहु दुर्लभ छे. कदाचित् शास्त्रज्ञान करे छे तोपण अंतरना
आत्मतत्त्वने जाण्या वगर ते संसारमां ज रखडे छे. भाई, लक्ष्मी तने अनंतवार मळी, मोटो राजा अने देव
पण तुं अनंत वार थयो, अने तें शास्त्रज्ञान पण अनंतवार कर्युं पण शास्त्रोए कहेला चैतन्यतत्त्वने तें कदी
जाण्युं नहि.
भ्रमतोऽपि सदा शास्त्रजाले महति केचन।
न विदन्ति परं तचं दारुणीव हुताशनम्।।५।।
जेम लाकडामां अग्नि रहेलो छे तेम देहमां आ चैतन्यतत्त्व रहेलुं छे; परंतु अज्ञानी जीव अनेक शास्त्रो
भणवा छतां पोताना भ्रमने लीधे आवा परम चैतन्य–तत्त्वने जाणतो नथी.
जुओ, आ सर्वज्ञदेव–तीर्थंकर भगवाननो टेलिफोन छे. बहारमां वेपारनो टेलिफोन आवे त्यां होंसथी
दोडे छे, तो आ तीर्थंकर भगवाननो टेलिफोन–संदेशो संतो संभळावे छे के–हे जीव! तुं देहथी भिन्न चैतन्यस्वरूप
छो, तेनुं भान कर. आ वातनुं श्रवण पण जीवने दुर्लभ छे. समयसारमां कहे छे के–