Atmadharma magazine - Ank 162
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 18 of 21

background image
चैत्र : २४८३ आत्मधर्म : १७ :
कर. अनंतकाळे आत्मानी समजणनो आ अवसर आव्यो छे, तेने बाह्य विषयोमां जे गुमावे छे ते तो आंधळा
जेवो मूर्ख छे.
एक आंधळो हतो; तेने एक गाममां प्रवेशवुं हतुं; गामने फरतो गढ हतो ने अंदर जवानुं एक ज द्वार
हतुं. आंधळाए कोईने पूछयुं के भाई!ं दरवाजो क्यां छे? ते भाईए कह्युं के–जो भाई! आ गढने हाथ
लगाडीने चाल्या जाओ, चालतां चालतां बारणुं आवशे एटले अंदर चाल्या जाजो... आंधळाने फरतां फरतां
ज्यां बारणुं आववानुं टाणुं थयुं त्यां ज बराबर खंजवाळ आवी, ने गढ उपरनो हाथ उपाडीने खंजवाळतो–
खंजवाळतो चाल्यो गयो... ने बारणुं पाछळ रही गयुं... तेथी पाछो भटकवा लाग्यो... तेम अनादि काळथी
संसारमां रखडता आ जीवने मनुष्य अवतारमां सत् समजीने मुक्तिपुरीमां प्रवेशवानुं टाणुं आव्युं.... संतोए
तेने मुक्तिमां प्रवेशवानुं द्वार देखाडयुं... पण मूढ अज्ञानी जीव आंधळानी जेम विषय कषायोनी खंजवाळमां
जीवन वीतावी दे छे ने मुक्तिनो आ अवसर गुमावी दे छे, माटे संतो कहे छे के–अरे भाई! अनंत अनंत
अवतारना दुःखथी छूटवानुं आ टाणुं आव्युं छे; तो हवे देहादिथी भिन्न एवा तारा परमतत्त्वने सत्समागमे तुं
जाण.
जेम लाकडामां अग्नि छे, पण ते काई लाकडाने कापवाथी नथी नीकळती, के आंखथी नथी देखाती. तेने
माटे तो एक चिनगारी जोईए. तेम आ देहमां चैतन्यतत्त्व आनंदथी भरेलुं छे; पण ते कांई आंखथी नथी
देखातुं, के शरीरना कटका करवाथी तेमां ते नथी देखातुं, ते चैतन्यतत्त्व तो अंतरना ज्ञानद्वारा ज ओळखाय छे.
परम चैतन्यतत्त्वने जाण्या वगर तेना आनंदनुं वेदन थाय नहि. जगतना आनंदथी चैतन्यनो आनंद जुदी
जातनो छे. आवा चैतन्यतत्त्वने सांभळवा माटे पण जीवे रस लीधो नथी. जराक प्रतिकूळता आवे त्यां गमतुं
नथी ने तेनाथी छूटवा मांगे छे. पण बापु! जेनाथी अनंत जन्ममरणनी अनंती प्रतिकूळता सहन करवी पडे–
एवा अज्ञानने तो तुं सेवी रह्यो छे, माटे जो तुं खरेखर जन्ममरणना दुःखथी छूटवा चाहतो हो तो अज्ञान
छोड, ने सत्समागमे आत्मानुं ज्ञान कर. आत्मानुं यथार्थ ज्ञान करवुं ते ज जगतमां उत्तम मांगळिक छे, तेनाथी
ज पापनो नाश, ने पवित्रतानी प्राप्ति थाय छे. आवुं मांगळिक ते ज धर्म छे; आवा मांगळिकना साथिया पूर्या
वगर आत्माना भवनो अंत कदी आवतो नथी, माटे सत्समागमे आत्मानुं ज्ञान करीने आत्मामां आवा
मंगळ–साथिया पूरवा, ते भवथी छूटवानो उपाय छे.

अहो, मोक्षमार्गी मुनिवरोनी दशा!!
ए तो परमेश्वरनो मार्ग छे.
जैन मुनिवरो परमेश्वरनो भेटो करवा नीकळ्‌या छे.
“–परमेश्वरनो भेटो केम थाय? ”

मुनिवरोने अंतरना श्रद्धा–ज्ञानमां तो परमेश्वरनो भेटो थई गयो छे, ने हवे अंतरमां लीन थईने पूर्ण–
आनंदी परमेश्वरपदने साधी रह्या छे.
भगवाननो भेटो करवा नीकळेला मोक्षमार्गी मुनिवरो आनंदना सागरमां झूली रह्या छे, अंतरना
चैतन्य दरीयामां तेमने शांतिनी भरती आवी छे... आनंदनो समुद्र ऊछळ्‌यो छे... रोम रोममां समाधि परिणमी
गई छे. आवा मुनि–अहो! जाणे के ‘चालता सिद्ध!ं’ –एवी एमनी अद्भुत दशा छे.
मुक्तिसुंदरी कहे छे के हुं आवा शुद्धरत्नत्रयना साधक मुनिवरोने ज वरुं छुं. आवा मोक्षमार्गी मुनिवरो
ज मुक्तिसुंदरीना नाथ थाय छे. – ‘जय हो... ए मुक्तिसुंदरीना नाथनो.’