: १६ : आत्मधर्म चैत्र : २४८३
सम्यक्त्वना महिमासूचक प्रश्नोत्तर
प्रश्न:– जीवने अनादिकाळथी दुर्लभ शुं छे?
उत्तर:– काळ अनादि छे, जीव पण अनादि छे अने भवसमुद्र पण अनादि छे; परंतु अनादिकाळथी
भवसमुद्रमां रखडता आ जीवे बे वस्तु कदी प्राप्त करी नथी–एक तो श्री जिनस्वामी अने बीजुं सम्यक्त्व. तेथी
ते दुर्लभ छे. (–परमात्मप्रकाश: २–१४३)
प्रश्न:– ज्ञान अने चारित्रनी शोभा शेनाथी छे?
उत्तर:– विशेष ज्ञान के चारित्र न होवा छतां, जो एकलुं मात्र सम्यग्दर्शन ज होय तो पण ते प्रशंसनीय
छे. परंतु मिथ्यात्वरूपी झेरथी दुषित थयेला ज्ञान के चारित्र प्रशंसनीय नथी. (–ज्ञानार्णव ६–५५)
प्रश्न:– शुं एकलुं प्रशंसनीय छे?
उत्तर:– विशेष ज्ञान–चारित्र न होय तोपण, एकलुं सम्यग्दर्शन पण प्रशंसनीय छे.
प्रश्न:– कया ज्ञान अने चारित्र प्रशंसनीय नथी?
उत्तर:– सम्यग्दर्शन विना, मिथ्यात्वरूपी झेरथी दुषित थयेला ज्ञान के चारित्र प्रशंसनीय नथी.
प्रश्न:– भवकलेशनो भार हळवो करवानुं औषध शुं छे?
उत्तर:– सूत्रज्ञ आचार्यदेवोए कह्युं छे के, अति अल्प यम–नियम–तप वगेरे होय तोपण, जो ते
सम्यग्दर्शन सहित होय तो भवसमुद्रना कलेशना भारने हळवो करवानी ते औषधि छे.
(–ज्ञानार्णव ६–५६)
प्रश्न:– कोण मुक्त छे?
उत्तर:– श्री आचार्यदेव कहे छे के जेने दर्शननी विशुद्धि थई गई छे ते पवित्र आत्मा मुक्त ज छे एम
अमे मानीए छीए; केमके दर्शनशुद्धिने ज मोक्षनुं मुख्य कारण मानवामां आव्युं छे. (–ज्ञानार्णव ६–५७)
प्रश्न:– शेना विना जीव मुक्ति नथी पामतो?
उत्तर:– जेओ ज्ञान अने चारित्रना पालनमां प्रसिद्ध थया छे एवा जीवो पण, आ जगतमां
सम्यग्दर्शन वगर मोक्षने पामी शकता नथी. (–ज्ञानार्णव ६–५८)
प्रश्न:– आ शुद्ध चैतन्य स्वभावने कोण नथी पामी शक्या?
उत्तर:– आ पोतानो शुद्ध चैतन्यस्वभाव भेदज्ञान वगर कदी क्यांय कोईपण तपस्वी के शास्त्रज्ञ पामी
शक्या नथी; भेदज्ञानथी ज शुद्धचैतन्य स्वभावनी प्राप्ति थाय छे. (–तत्त्वज्ञानतरंगिणी ८–११)
प्रश्न:– कर्मसमूहनो क्षणमात्रमां क्षय कोण करे छे?
उत्तर:– भेद विज्ञानी महात्मा चैतन्यस्वरूपना प्रतिघातक एवा कर्मोना समूहनो क्षणमात्रमां क्षय करी
नांखे छे; केवी रीते? –के जेवी रीते अग्नि घासना ढगलाने क्षण मात्रमां भस्म करी नांखे छे तेवी रीते.
(–तत्त्वज्ञानतरंगिणी ८–१२)
प्रश्न:– मोक्षार्थी जीवे अत्यंत भाववायोग्य शुं छे?
उत्तर:– संवर तथा निर्जरा साक्षात् पोताना आत्माना ज्ञानथी थाय छे, अने आत्मज्ञान भेदज्ञानथी
थाय छे, माटे मोक्षार्थी जीवोए ते भेदज्ञान अत्यंत भाववा योग्य छे. (–तत्त्वज्ञानतरंगिणी ८–१४)
भेदज्ञानथी शुद्ध आत्मानी प्राप्ति थाय छे अने शुद्धआत्मतत्त्वनी प्राप्तिथी साक्षात् संवर संप्राप्त थाय छे;
माटे ते भेदविज्ञान अत्यंत भावनीय छे. (–समयसार, कळश १२९)
प्रश्न:– मनुष्य होवा छतां पशु जेवो कोण छे?
उत्तर:– “नरत्वेऽपि पशुयन्ते मिथ्यात्वग्रस्तचेतः सः” –जेनुं चित मिथ्यात्वथी घेरायेलुं छे एवो
मिथ्याद्रष्टि जीव, मनुष्यपणुं होवा छतां पण पशु समान हित–अहितना विवेक रहित अविवेकी आचरण करतो
होवाथी पशु छे. (–सागारधर्मामूत–४)