Atmadharma magazine - Ank 162
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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आत्मधर्म
वर्ष चौदमुं : संपादक: चैत्र
अंक छट्ठो रामजी माणेकचंद दोशी २४८३
सम्यग्दर्शननो उपदेश
प्रश्न:– आप तो सम्यग्दर्शन उपर ज खूब भार मूको छो, अने एना
वगर बधुं थोथां छे–एम कहो छो; परंतु, ज्यां सुधी सम्यग्दर्शन न पामीए त्यां
सुधी शुभ भाव करवानो उपदेश केम आपता नथी?
उत्तर:– भाई! अनादिकाळना भवभ्रमणनो अंत केम आवे, अने
आत्मानी मुक्ति केम थाय–तेना उपायनो आ उपदेश छे, अने तेनी शरूआत तो
सम्यग्दर्शनथी ज थाय छे. अशुभ तेमज शुभ ए बंने प्रकारना भावो तो जीव
अनादिकाळथी उपदेश वगर पण करतो ज आव्यो छे, पण तेनाथी कांई
भवभ्रमणनो अंत आवतो नथी, तेथी तेना उपर शुं वजन देवुं!! शुभराग पण
अपराध छे, विकार छे, तेनी रुचि करवानुं केम कहेवाय? जेम ‘अमृत न मळे तो
तुं झेर खाजे’ एम केम कहेवाय? हा, एम कहेवाय के अमृत न मळे त्यांसुधी
तेने ज मेळववानो प्रयत्न करजे, पण झेर तो खाईश नहि. –तेम सम्यग्दर्शन न
थाय तो तेणे सम्यग्दर्शननो प्रयत्न करवो, पण रागने तो धर्म न ज मानवो.
रागने धर्म मानवो ते तो मिथ्यात्वरूप झेरनुं सेवन छे, माटे जेणे भवथी छूटवुं
होय तेने माटे तो पहेलांं सम्यग्दर्शननो ज उपदेश छे.
वळी जिज्ञासु जीवने सम्यग्दर्शननो अपूर्व उपाय समजतां समजतां, तेनुं
बहुमान करतां करतां, अने तेनो प्रयत्न करतां करतां, अशुभ भावो टळीने
ऊंची जातना शुभभावो तो सहेजे थई जाय छे, एटले तेने तेना उपदेशनी
मुख्यता नथी. जेम अनाज पाकतां राडां पण साथे पाकी जाय छे, पण खेडूतनो
प्रयत्न अनाज माटे छे, राडां माटे नथी; तेम सम्यग्दर्शन वगेरेने साधतां साधतां
वच्चेनी भूमिकामां ऊंची जातनो शुभराग पण आवी जाय छे, पण धर्मीनो
प्रयत्न तो सम्यग्दर्शनादि माटे छे, राग माटे तेनो प्रयत्न नथी, तेमज ते रागने
धर्म मानता नथी.
अशुभ टाळीने शुभ करे तेने पण व्यवहारे तो ठीक कहेवाय, –परंतु
मनुष्यभव पामीने जेणे सम्यग्दर्शन न कर्युं अने भवभ्रमणनो अंत न लाव्यो–
तो तेना शुभनी शी किंमत? तेणे आत्मानुं शुं हित कर्युं? –अहीं तो आत्मानुं
हित थाय ने भवभ्रमणनो अंत आवे–एवी वात छे. जेनाथी आत्मानुं
भवभ्रमण न अटके तेनी शी किंमत?
पुण्यनी सेवा करवाथी मोक्ष नथी थतो, परंतु ज्ञानस्वभावी आत्मानी
सेवा (श्रद्धा–ज्ञान–रमणता) करवाथी ज मोक्ष थाय छे; माटे तेनो ज उपदेश छे.
(–प्रवचनमांथी)