Atmadharma magazine - Ank 162
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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चैत्र : २४८३ आत्मधर्म : ५ :
चैतन्यना चिंतननो उपदेश
(भोळादगाममां पू. गुरुदेवनुं प्रवचन कारतक वद ७ शनिवार)
(तत्त्वज्ञान तरंगिणी अ.प.श्लो. २)
आत्मा ज्ञानानंदस्वरूप छे; ते ज्ञान–आनंदनी पूर्णतानी प्राप्ति थया पछी, भगवाननी वाणीमां जे
उपदेश नीकळ्‌यो तेने शास्त्र कहे छे. तेमां कहे छे के: अरे आत्मा! अनंत अनंत काळथी तुं चार गतिमां रखडी
रह्यो छे, पण तुं कदी मुक्ति पाम्यो नथी. हे भाई! संसारमां रखडतां तें आत्मस्वरूपनी वात पण कदी प्रेमपूर्वक
सांभळी नथी. देहथी भिन्न ज्ञानस्वरूप आत्मा शुं चीज छे–एना भान वगर तें बहारमां आ करुं ने ते करुं–
एवो देकारो कर्यो छे. तें चैतन्यना चिंतन सिवाय बाह्य पदार्थोनुं चिंतन पूर्वे अनंतवार कर्युं, ने तेथी चार
गतिमां परिभ्रमण कर्युं, माटे हे जीव! हवे संतो पासेथी चैतन्यनुं श्रवण करीने तेनुं तुं चिंतन कर.
हुं कोण छुं? क्यांथी थयो? शुं स्वरूप छे मारुं खरुं?
कोना संबंधे वळगणा छे? राखुं के ए परिहरुं?
–आवा विचार वगर महा अधर्म अने पाप करीने जीव अनंतवार नरकमां गयो; ने अनंतवार पशु
थयो. पशु तो बिचारां घास खाय ने मजूरी करीने जीवन वीतावे; तेने कांई आत्माना हितनो विचार नथी.
एक आंगळीने ईजा थाय तो पण केटला विचार करे छे! तो आ आखो आत्मा अनादि काळथी चार गतिमां
दुःख पामे छे तेनाथी तेनो केम छूटकारो थाय–तेनो विचार केम नथी करतो?
आत्मा ज्ञानस्वरूप छे ते अरूपी छे, ते आ देहथी भिन्न छे. देहनी पांच ईन्द्रियोवडे आत्मा जणाय नहि.
आंख वडे काळो–धोळो रंग देखाय पण आत्मा तो रंग विनानो छे ते आंखथी न देखाय; कानथी शब्दो
संभळाय पण आत्मा कांई कानथी न जणाय; नाकथी सुगंध–दुर्गंध जणाय पण आत्मा तो गंध वगरनो छे ते
कांई नाकथी सूंघी शकाय नहि. जीभथी रस चखाय पण आत्मा रस वगरनो छे ते जीभथी स्वादमां न आवे;
तेमज स्पर्शथी पण ते जणाय नहि; आत्मा तो अरूपी चैतन्यस्वरूप छे, ते ज्ञानथी जणाय छे. अरे! आत्मा
कोण–तेनो तो विचार पण करे नहि, मरीने हुं क्यां जईश न मारुं शुं थशे! –एनो विचार करे नहि, ने मांस
खाय, दारु पीए, शिकार करे–एवा महापापना काम करे ते जीव नरकमां महादुःख पामे छे. आत्मा तो
ज्ञानस्वरूप छे. जेनामां रूप नथी ते आंखथी केम देखाय? जेनामां शब्द नथी ते कानथी केम संभळाय? जेनामां
गंध नथी ते नाकथी केम सूंघाय? जेनामां शब्द नथी ते कानथी केम जणाय? जेनामां स्पर्श नथी ते स्पर्शवडे केम
जणाय? जेनामां रस नथी ते जीभवडे केम जणाय? आत्मा तो पांचे ईन्द्रियोथी जुदो छे, ते कोई ईन्द्रियोवडे
जणातो नथी, पण अंतरमां ज्ञान करे तो ते जणाय छे.
जुओ, आ भाल प्रदेशमां विहार करतां वच्चे खारी जमीन आवी हती. ते खारी जमीनमां जेम झाड
ऊगता नथी, तेम जे जीवो तीव्र पापमां पडेलां छे तेओ नरकमां जाय छे, ते क्षारभूमि जेवी छे, त्यां महादुःख
छे. तीव्र पापमां डुबेला जीवने धर्मनो विचार थतो नथी. अरे रे! अनंतकाळमां आवो मनुष्य अवतार मळ्‌यो,
आ शरीर तो क्षणमां छूटी जशे... माटे आ मनुष्य अवतारमां मारा आत्मानुं हित थाय–एवो उपाय हुं करुं, –
एम विचार करवो जोईए. शांति तो जीवना शुद्ध चैतन्यस्वरूपमां ज छे परंतु महामोहने लीधे जीवे तेनुं चिंतन
कदी कर्युं नथी, ने स्त्री–पुत्रादिनुं ज चिंतन कर्युं छे; ठेठ मरण सुधी परनी ज चिंता कर्या करे छे... अनंत भवमां
ए ज रीते परनी चिंता करतो करतो मर्यो... पण पोताना स्वरूपनुं चिंतन जीवे कदी न कर्युं. ‘हुं शुद्धचिद्रूप छुं’ –
एवा स्वरूपना स्मरणपूर्वक कदी समाधिमरण कर्युं नथी. भाई! तारा चिदानंदस्वरूप आत्मा वगर तने कोई
शरणरूप नथी; माटे ज्ञानानंदस्वरूप आत्माने ओळख. जीवनमां आत्मानुं भान कर्युं होय तो मरवा टाणे तेनुं
स्मरण करे ने?