तीर्थाधिराज सम्मेदशिखर, पावापुर, राजगिर, चम्पापुर आदि अनेकों तीर्थस्थानोंकी वंदना करते
हुए इस दिल्लीमें पदार्पण किया है, जिसे स्वतन्त्र भारत की राजधानी होनेका गौरव प्राप्त हैं।
अपनी खोंज–शोधके लिये प्रख्यात, प्रसिद्ध पुरातत्त्वविद्, साहित्यतपस्वी, ब्र० आ०
जुगलकिशोरजी मुख्तार, ‘युगवीर’ द्वारा संस्थापित इस वीरसेवामन्दिरमें ठहर कर आपने हम
लोगों पर जो अनुग्रह किया हैं वह हम सबके लिये परम हर्षकी बात हैं।
आपने जन्म लिया। गृहस्थाश्रममें सर्व साधन–सम्पन्न होते हुए भी आपने बाल्यकालसे ही
ब्रह्मचर्यको अंगीकार किया, और अत्यन्त अल्प वयमें संसारसे उदास होकर साधु–दीक्षा ग्रहण
की। पूरे २१ वर्ष तक स्थानकवासी जैन सम्प्रदायमें रह कर श्वेताम्बर आगम–सूत्रों–ग्रन्थोंका
विशिष्ट अभ्यास किया और अपने सम्प्रदायके एक प्रभावक वक्ता एवं तपस्वी बने। उस समय
अनेकों राजे–महाराजे और सहस्त्रों जैन आपके परम भक्त थे, तथा आपको ‘ प्रभु ’ कह कर
वंदना–पूर्वक साष्टाङ्ग नमस्कार करते थे।
परम अमृतमय समयसार आपके हस्तगत हुआ, आपने अत्यन्त सूक्ष्म द्रष्टिसे उसका स्वाध्याय
प्रारम्भ किया। स्वाध्याय करते ही आपको यथार्थ द्रष्टि प्राप्त हुई और विवेक जागृत हुआ। आपने
अनुभव किया कि आज तक मैंने शालि–प्राप्तिके लिये तुष–खंडनमें ही अपने जीवनका बहुभाग
बिताया है। उस समय आपके हृदयमें अन्तर्द्वन्द मच गया। एक ओर आपके सामने अपने सहस्रों
भक्तों द्वारा उपलब्ध पूजा–प्रतिष्ठा आदिका मोह था, और दूसरी ओर सत्यका आकर्षण। इन
दोनोंमेंसे अपनी पूजा–प्रतिष्ठाके व्यामोहको ठुकराकर आपने दिगम्बर धर्मको स्वीकार किया और
महान् साहस और द्रढ़ताके साथ विक्रम संवत् १९९१ में चैत्र शुक्ला त्रयोदशीको वीरजयन्तीके दिन
वीरता–पूर्वक अपने वेष–परित्यागकी घोषणा कर दी। घोषणा सुनते ही सम्प्रदायमें खलबली मच
गई और नाना प्रकार के भय