: વૈશાખ : ૨૪૮૩ આત્મધર્મ : ૧૭ :
। श्रीवीतरागाय नमः।
आध्यात्मिक सन्त आत्मार्थीं श्री कानजीस्वामी की
सेवा में सादर समर्पित
सम्मान – पत्र
सम्माननीय!
यह हमारा महान् सौभाग्य है कि आप करीब १५०० धर्मबंधुओं के साथ उत्तर भारत के
समस्त सिद्ध–क्षेत्रों एवं परम पुनीत शाश्वत तीर्थक्षेत्र श्री सम्मेदशिखरजी की वंदना करते हुए
कलकत्ता नगरी में पधारे हैं। बंगदेश की यह प्रधान नगरी आपके पदार्पण से पवित्र हुई है। आज
इस मंगलवेला में हम आपके प्रति श्रद्धाभाव प्रगट करते हुए अपने आपको गौरवान्वित समझते हैं।
ज्ञानसुधाकर!
भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेव, स्वामी पुष्पदंत, भूतबलि, श्री उमास्वामी, स्वामी कार्तिकेय,
श्री अमृतचंद्राचार्यदेव, इत्यादि महान् आचार्यो के हृदय में प्रवेश कर आपने जैनधर्म के गूढ़ रहस्य
को समझा है और उसे समस्त मुमुक्षुगण के सामने स्पष्ट खोलकर रख दिया है। सौराष्ट्र से लेकर
कलकत्ता तक आपके हृदय की गहराई से निकले हुए ज्ञान–सुधारस का स्रोत वह गया है।
आपकी वाणी से अध्यात्म रस का झरना निरंतर झरता रहता है। संसार के दुःखों से संतप्त एवं
क्लान्त प्राणी इस अमृत को पीकर अत्यन्त विश्राम पाते हैं।
अध्यात्मयोगिन्!
धन्य है सोनगढ़ के निवासी जिन्हें आपके पादमूल में ज्ञानानंद रस पीने का सौभाग्य
हमेशां प्राप्त है। धन्य हैं मातेश्वरी देवी उजमबा जिन्होंने आप जैसे पुत्ररत्न को जन्म दिया। धन्य हैं
भगवान् धरसेनाचार्य की धरा सौराष्ट्र देश जहां आप जैसे ज्ञानी महानुभाव का आविर्भाव हुआ।
धन्य है यह भारतवर्ष जो आप जैसे तत्त्व–मर्मझ के कारण आज भी अपनी आध्यात्मिक परम्परा
अक्षुण्ण बनाए रखने में समर्थ है।
युगप्रवर्तक!
आपके उपदेश से सहस्रों भाई बहिनोंने जैन धर्म के शुद्ध तात्विक स्वरूप को समझा है।
परिणामस्वरूप सौराष्ट्र में अनेकों जिनमंदिरों एवं जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा हुई है, आर्ष ग्रन्थों की
करीब तीन लाख प्रतियां सोनगढ़ से प्रकाशित हो चुकी हैं और अनेक कुमार, कुमारिकाओं