Atmadharma magazine - Ank 163
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957).

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: ૧૮ : આત્મધર્મ ૨૪૮૩ : વૈશાખ :
एवं दम्पतियोंने दुर्धर ब्रह्मचर्यव्रत आजन्म धारण किया है। आपकी उपस्थिति से सोनगढ़ तीर्थ
सद्रश बन गया है। आपने एक नवयुग का निर्माण किया है। आपकी वाणी अनादिरुढ,
व्यवहारमूढ़, निश्चयअनारुढ़ प्राणियों को सत्पथ प्रदर्शन करती है और दीर्घ काल तक करती
रहेगी ऐसा हमारा विश्वास है। जैन धर्म विश्वधर्म है, उसका सूक्ष्म अध्यात्मवाद अद्वितीय है। उस
अध्यात्मवाद को सरल और स्पष्ट भाषा में समझाकर आपने इसकी ख्याति में चार चांद लगा दिए
है। आपके द्वारा जिन शासन की जो प्रभावना हुई है वह ऐतिहासिक और अवर्णनीय है।
शाश्वत सुख मार्ग प्रदर्शक!
सच्चिदानन्दधन भगवान आत्मा के स्वरूप को हम भूले हुए थे। उसका एवं द्रव्य के
परिणमन की स्वतन्त्रता का विशद विवेचन करके आपने हम श्रोताओं के हृदय में धर्म के मौलिक
तत्त्व की प्रतिष्ठा की है। आपके इस सिंहनाद से कि “प्रभुत्व शक्ति प्राणि मात्र के अन्तर में अनादि
काल से पड़ी है अतः उस ओर अन्तर्दष्टि करे तो प्रत्येक प्राणी प्रभु हो सकता है” हमारे भीतर
की सुषुप्त प्रभुत्व शक्ति को प्रभावपूर्ण आह्वान मिला हैं। हमारे अन्तर में एक अभूतपूर्व जागृति हुई
है। आगे हम आत्मोन्नति के पथ पर बराबर अग्रसर होकर अपनी स्वरूपप्राप्ति के लिए सतत
प्रयत्नशील रहेंगे, ऐसा हमारा द्रढ़ निश्चय है।
हम लोगों पर महान् कृपा करके आप यहां पधारे तथा आठ दिन तक लगातार आपने हमें
उपदेशामृत पान कराया पर हमें तृप्ति नहीं हुई। ऐसा लगता है कि आपके समीप रह कर यह
अमृतपान निरंतर करते रहें। आपकी महान् कृपा के लिए अपनी कृतज्ञता प्रकाश करने योग्य
हमारे पास शब्द नहीं हैं। अतः हम आपके सामने नतमस्तक हैं।

कलकत्ता विनयावनत ः–
दिनांक २९–३–५७ श्री कानजीस्वामी स्वागत समिति
• • • •
श्रीवीतरागाय नमः
परम आध्यात्मिक संत, आत्मार्थी, श्री कानजीस्वामी की
सेवा में सादर समर्पित
अभनन्दन – पत्र
सम्माननीय!
यह हमारा सौभाग्य है कि आप करीब १५०० धर्मबंधुओं के साथ उत्तर भारत के समस्त
सिद्ध–क्षेत्रों एवं परम पुनीत शाश्वत तीर्थक्षेत्र श्री सम्मेदशिखरजी की वन्दना करते