Atmadharma magazine - Ank 163
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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: ६ : आत्मधर्म २४८३ : वैशाख :
जुओ, जे आत्मार्थी होय, आत्मा प्राप्त करवानुं जेने रटण होय एवा जीवोने संतो आत्मानी सूक्ष्म वात
संभळावे छे.
कहे महात्मा, सुण आतमा,
कहुं वातमां वीतक खरी;
संसारसागर दुःखभर्यामां,
अवतर्या कर्मे करी...
संत–महात्मा कहे छे के : अरे जीव! तुं सांभळ! आ तारी कथा कहेवाय छे. तारो आत्मा संसारमां केम
दुःखी थई रह्यो छे ने ते दुःख केम टळे ते हुं तने कहुं छुं.
आ चैतन्य हीरो शुं छे तेनुं भान न करे ने डोकमां १७ लाखनो हीरानो हार पहेर्यो होय. ते हीरो कांई
मरण टाणे शरण नहि थाय. जीवने शरणरूप तो एक सम्यग्दर्शन रत्न छे. ए रत्न सिवाय करोडो–अबजोनी
किंमतना रत्नो पण अनंतवार मळी गया, पण ते कोई शरणभूत न थया.
भाई! जगतमां तने आत्मज्ञान वगर बीजुं कोई शरण नथी. जुओ, आ जगतमां पैसा वगेरेनो
संयोग तो पूर्वना पुण्य–पापना प्रारब्ध अनुसार थाय छे. कोई जीव अत्यारे महापापी होय–दंभी होय छतां
पूर्वना प्रारब्धथी लाखो रूा. पेदा करता होय ने लहेर करतो देखाय; ने कोई जीव सरळ होय–पापथी डरनारो
होय छतां पूर्वना अशुभ प्रारब्धने लीधे अत्यारे रोटलाना पण सांसा पडता होय. भाई! ए तो पूर्वना
प्रारब्ध अनुसार मळे छे. पण आ आत्मा कांई प्रारब्धथी नथी मळतो, पोते सत्समागमे चैतन्यस्वरूप
समजवानो प्रयत्न करे तो आत्मानुं भान थाय छे. आवुं आत्मानुं भान करवुं ते ज जीवने शरणभूत छे; ए
सिवाय लक्ष्मीना ढगला के बीजुं कोई जीवने शरणभूत नथी.
चैतन्यस्वरूपने भूलेला जीवो पुण्य–पापथी चार गतिमां परिभ्रमण करे छे. जेओ पुण्य करे छे तेओ देव
अने मनुष्य थाय छे; जेओ तीव्र माया–कपट करे छे तेओ तिर्यंच–ढोर थाय छे; ने तीव्र हिंसादि पाप करनारा
जीवो नरकमां जाय छे. चैतन्यनुं भान करनार जीव चार गतिना परिभ्रमणथी छूटीने सिद्धि पामे छे.
आ शरीरनी नाडीनी गति केवी चाले छे ने केटला धबकारा थाय छे–तेनी परीक्षा करे छे, पण अंदर
आत्मा रहेलो छे तेनी गति केवी थाशे?–तेनो कदी विचार पण जीव करतो नथी. कई जमीनमां केवुं अनाज
ऊगशे ते विचारे छे, पण आत्मामां हुं जे भाव सेवी रह्यो छुं तेनुं फळ केवुं ऊगशे–तेनो विचार करतो नथी.
छांयो पूरो थतां ज जेम तडको शरू थाय छे; तेम आ भव पूरो थतां ज जीवने बीजा भवनी शरूआत
थाय छे. ते बीजा भवमां मारुं शुं थशे तेनो विचार पण जीव नथी करतो! जुओ, २० वर्षनो माणस एम
विचार करे छे के हुं १०० वर्ष जीवीश तो ८० वर्षमां मारे हवे आटलुं खरच जोईशे ने हुं आम करीश. एम आ
भवमां ८० वर्ष सुधीनी सगवडतानो विचार करे छे, पण आ भव पूरो थया पछी बीजी ज क्षणे बीजो भव शरू
थशे, तेमां मारुं शुं थशे–तेनो विचार करतो नथी. ते भव कोनो छे? आ जीवनो ज ते भव छे, तो ते भवमां
मारुं शुं थशे–एनो हे भाई! जराक विचार तो कर! जो आ भव पछीना बीजा भवनो यथार्थ विचार करवा
जाय तो क्षणिक देहद्रष्टि छूटीने चैतन्य तरफ द्रष्टि थई जाय. भाई, अहीं जराक काळनी जराक प्रतिकूळतामां पण
तुं धूंवांफूवां थई जाय छे, तो बीजा आखा भवमां तारुं शुं थशे–एनो तो विचार कर. जो आ भवमां आत्मानी
दरकार नहि कर तो अनंतसंसारमां तारो आत्मा क्यांय खोवाई जशे; माटे भाई! जो तने दुःख खरेखर न
गमतुं होय तो आ देहथी भिन्न आत्मा शुं चीज छे–तेने सत्समागमे ओळख.
गोसळियानुं द्रष्टांत : गामडानो एक भोळो गोसळियो शहेरमां माल लेवा गयेलो...शहेरनी भीडमां तेने
एम भ्रमणा थई गई के “हुं आ भीडमां खोवाई गयो.” एटले शहेरमां चारे कोर फरी–फरीने पोते पोताने
ढूंढवा लाग्यो...तेम आ भोळो अज्ञानी जीव पोते पोताना स्वरूपने भूलीने बहारमां पोताने शोधे छे. तेने
ज्ञानी समजावे छे के: अरे भाई! तारो आनंद तारामां ज छे; तुं क्यांय खोवाई नथी गयो; तुं पोते ज ज्ञान–
आनंदस्वरूप आत्मा छो. पण भ्रमणाथी तुं तने पोताने भूलीने संसारमां भटक्यो, माटे तारा आत्माने चैतन्य
चिह्नथी तुं ओळख.
अरे! आवो अवतार पामीने जीवोने आत्मानुं