Atmadharma magazine - Ank 164
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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देहथी भिन्न, अने रागदिथी पार, मारो आत्मा ज्ञान ने आनंदस्वरूप छे–एम अंतरमां आत्माना परमार्थस्वरूपने
जे ओळखे छे ते अंतरात्मा छे. आवा लक्षणथी अंतरात्मपणुं ओळखीने ते प्रगट करवा जेवुं छे.
अने समस्त दोषथी रहित आत्मानुं पूर्ण ज्ञान आनंदस्वरूप प्रगटे ते परमात्मदशा छे, ते परम उपादेय छे.
[वीर सं. २४८२ वैशाख वद सातम]
अनादिकाळथी जीव संसारमां परिभ्रमण करी रह्यो छे तेनुं कारण शुं अने ते केम छूटे ते बतावे छे. आत्मा
ज्ञानानंदस्वरूप छे तेने भूलीने बहारमां देह–मन–वचन तथा रागादि ते ज हुं छुं एवी बहिरात्मबुद्धिने लीधे ज
अज्ञानी अनादिकाळथी संसारमां परिभ्रमण कर रह्यो छे. देहादिथी भिन्न ने रागादि दोषोथी भिन्न शुद्ध
ज्ञाननंदस्वरूप हुं छुं–एवी आत्मानी ओळखाण करीने अंतरात्मा थवुं ते भवभ्रमणथी छूटवानो उपाय छे.
गृहस्थपणामां रहेलो जीव पण ज्ञाननंदस्वरूप आत्मानुं भान करीने अंतरात्मा थई शके छे; हजी राग–द्वेष
होवा छतां, आत्मा ज्ञानानंदस्वरूप छे एवुं सम्यग्भान थई शके छे. समकिती धर्मात्मा जीव अजीव आदि तत्त्वोने
भ्रांतिरहित यर्थाथपणे जाणे छे. जीवने जीवरूपे जाणे छे, रागादिने रागादिरूपे जाणे छे, देहादिने के अजीवरूपे जाणे
छे. देहादि के रागादिने आत्मानुं स्वरूप ते मानता नथी.
जीव तो ज्ञान–दर्शन–आनंदस्वरूप छे.
देह वगेरे तो अजीव छे, ते जीवथी भिन्न छे.
राग–द्वेष–अज्ञान ते दुःखरूप भावो छे, एटले के आस्रव ने बंधरूप छे.
सम्यक् श्रद्धा–ज्ञान–चारित्ररूप भाव ते जीवने सुखरूप छे, संवर–निर्जरा–मोक्षनुं कारण छे.
–आम बधा तत्त्वोने जेम छे तेम जाणीने, एक ज्ञानानंदस्वरूप पोताना आत्मामां ज आत्मबुद्धि करे छे,
देहादिने पोताथी बाह्य जाणे छे, राग–द्वेष–अज्ञानने दुःखरूप जाणीने छोडे छे, ने सम्यक् श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रने
सुखरूप जाणीने आदरे छे;–आवा जीवने अंतरात्मा कहे छे.
ज्ञानस्वरूप जीव अने शरीरादि अजीव, ते बंने पदार्थो भिन्न भिन्न छे, छतां अज्ञानी जीव भ्रांतिथी ते
बंनेने एक माने छे, शरीरदिनां कार्यो आत्माना माने छे; ने आत्माने शरीर वगेरे बाह्य पदार्थोथी हित–अहित माने
छे; वळी ज्ञान–वैराग्यरूप भाव आत्माने हितरूप होवा छतां तेमां ते प्रवृत्ति नथी करतो, तेमां तो अरुचि अने
कंटाळो करे छे, तथा राग–द्वेष–मोहरूप भावो जीवने अहितरूप होवा छतां तेमां निरंतर प्रवर्ते छे–तेनी रुचि छोडतो
नथी; आ प्रमाणे जीव–अजीव वगेरे तत्त्वोना स्वरूपमां भ्रांतिथी प्रवर्ते छे ते जीव बहिरात्मा छे.
धर्मी तो जाणे छे के जडथी हुं भिन्न छुं, देहादिक मारां नथी, हुं तेनो नथी; मारो तो एक ज्ञान दर्शनलक्षणरूप
शाश्वत आत्मा ज छे, ए सिवाय संयोगलक्षणवाळा जे कोई भावो छे ते बधाय माराथी बाह्य छे. चैतन्यना आश्रये
ज्ञान–वैराग्यरूप भाव प्रगटे ते मने हितरूप छे, ने बाह्य पदार्थना आश्रये रागादिभावो थाय ते मने अहितरूप छे.
–आ प्रमाणे जीव अजीव वगेरे तत्त्वोनी प्रतीति करीने, अंतर्मुख चैतन्यस्वरूपमां वर्ते छे ते अंतरात्मा छे.
अने राग–द्वेष–मोहनो सर्वथा क्षय करीने, केवळज्ञान, केवळदर्शन, अनंत अतीन्द्रिय आनंद ने अनंतवीर्य
जेमने प्रगटी थया छे ते परमात्मा छे; तेमां अरहंतपरमात्मा ते सकल परमात्मा छे अने सिद्ध परमात्मा ते
निकलपरमात्मा छे. चार घातीकर्मोना क्षयथी केवळज्ञानादि अनंतचतुष्टय तो बंनेने सरखां छे. अरहंत परमात्माने
चार अघाती कर्मो बाकी छे तेनो क्षणे क्षणे क्षय थतो जाय छे, बहारमां समवसरणादि दिव्य वैभव होय छे, तेओ
परमहितोपदेशक छे, हजी शरीरना संयोग सहित होवाथी ते सकल परमात्मा छे. सिध्धपरमात्मा आठे कर्मोथी रहित
लोकनी टोचे बिराजमाने छे, अनंत आनंदना अनुभवमां कृत कृत्यपणे सादिअनंतकाळ बिराजे छे, शरीरादिनो
संयोग छूटी गयो छे तेथी तेमने निकलपरमात्मा कहेवाय छे.
जैठः २४८३
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