
बंधनुं फळ छे. पूर्वे पुण्य–पापथी जे शुभ–अशुभ कर्मो बंधाया तेना फळमां बाह्यमां अनुकूळ–प्रतिकूळ संयोग मळे
छे, ते संयोग तो आत्माथी भिन्न छे. छतां तेने सुखदुःखनुं कारण मानवुं ते भ्रांति छे. ते भ्रांतिने लीधे अज्ञानी जीव
पोतानी आत्मशांतिने खोई बेठो छे, ने बाह्य विषयोनी प्रीतिथी दुःखी थई रह्यो छे. अतीन्द्रिय चैतन्य विषयने
चूकीने बाह्य ईन्द्रिय विषयोमां मूर्छाई गयो छे तेथी बहिरात्मा निरंतर दुःखी छे. मारा परमानंदनी शक्ति मारा
आत्मामां ज भरी छे, ईन्द्रियना बाह्य विषयोमां मारुं सुख नथी–एवी अंर्तप्रतीति करीने धर्मात्मा अंतर्मुख थईने
आत्माना अतीन्द्रिय सुखनो स्वाद ल्ये छे. जेम लीडींपीपरना दाणे दाणे चोसठ पहोरी तीखासनी ताकात भरी छे
तेम प्रत्येक आत्मानो स्वभाव परिपूर्ण ज्ञान–आनंदथी भरेल छे. पण तेनो विश्वास करीने तेमां अंतर्मुख थईने
एकाग्र थाय तो ते ज्ञान–आनंदनो स्वाद अनुभवमां आवे. आत्माथी बाह्य विषयोमां क्यांय आत्मानो आनंद
नथी. धर्मी पोताना आत्मा सिवाय बहारमां क्यांय स्वप्नेय आनंद मानता नथी. आवा अंतरात्मा पोताना
आंर्तस्वरूपमां एकाग्र थईने परिपूर्ण ज्ञानआनंद प्रगट करीने पोते ज परमात्मा थाय छे. सर्वज्ञ होवा छतां
ज्यांंसुधी शरीरादि सहित छे त्यांसुधी ते अरहंत सकलपरमात्मा छे, अने पछी शरीररहित थई गया ते सिद्ध
निकलपरमात्मा छे.
नथी. सम्यद्रष्टि मोक्षमार्गना सम्यक्चारित्रनुं यथार्थ भान होय छे अने तेने ज ते
चारित्रनी यथार्थ भावना होय छे. चारित्र तो आत्मानो वीतरागभाव छे, तेने अज्ञानी
ओळखतो नथी अने देहनी क्रियाने के शुभरागने चारित्र मानीने तेनी ज भावना करे छे,
तेथी अज्ञानीने तो चारित्रना नामे पण मिथ्यात्व पोषाय छे. अविरत सम्यग्द्रष्टिने भले
मुनिदशा वगेरेनुं विशेष चारित्र न होय छतां अंतरमां तेने ते चारित्रनुं भान अने
भावना तो होय छे; अप्रत्याख्याननो राग होवा छतां तेनी भावना होती नथी. पण जेने
हजी सम्यग्दर्शन ज नथी तेने तो चारित्रदशानुं यथार्थ भान के भावना पण होतां नथी,
तो पछी सम्यक्चारित्र तो तेने क्यांथी होय? चारित्र ते धर्म छे, पण तेनुं मूळ तो
सम्यग्दर्शन छे. सम्यग्दर्शन वगर चारित्र के तेनी भावना होती नथी. छह ढाळमां पण
कह्युं छे के–