Atmadharma magazine - Ank 165
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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: अषाड : २४८३ : आत्मधर्म : ११ :
कहेला वस्तुस्वरूपनी पण खबर नथी, –ते तो जैन कहेवाने य योग्य नथी. एवी ज बीजी एक व्यक्तिने कोईए
पूछयुं के आत्मानुं लक्षण शुं? –तो ते कहे के “आत्मानुं लक्षण शरीर! ” पछी पूछयुं के आत्मानो गुण शुं? तो
कहे के शरीरने टकावी राखवुं ते. जुओ आ दशा! वळी एक व्रत अने पडिमानुं नाम धरावनारने पूछयुं के
आत्मा केवा रंगनो हशे? –तो विचार करीने कहे के “धोळा रंगनो! ” शरीर अनंत परमाणुनुं बनेलुं छे–एम
सांभळीने एक माणसे पूछयुं के ‘महाराज! आत्मा केटला परमाणुनो बनेलो हशे!!’ –अरे! रोज सामायिक ने
प्रतिक्रमण करवानुं माने, पोताने, व्रती के साधु माने, अने तत्त्वनुं जराय भान पण न होय–एनुं तो बधुं थोथे
थोथां छे. भले कदाचित् बीजां थोथां जाणे, पण चैतन्यस्वरूप आत्मा शुं छे ते न जाणे–तो तेनी ओळखाण विना
धर्म थाय नहीं.
अनंत पदार्थोनी मध्यमां रहेवा छतां आत्मा कदी कोई पर रूपे थतो नथी, तेमज पोताना अनंत धर्मोथी
आत्मा कदी जुदो पडतो नथी, –एवो अनंत शक्तिवाळो एक आत्मा छे. जगतना छए प्रकारनां द्रव्यो, तेना
कोई गुणो के तेनी कोई पर्यायो कदी परपणे थती नथी, बीजाना द्रव्य–गुण के पर्यायने करे एवी शक्ति जगतना
कोई तत्त्वमां नथी; दरेक द्रव्य पोतानी अनंत शक्तिथी पोताना द्रव्य–गुण–पर्यायपणे टकी रह्युं छे. विकार परने
लीधे थाय, एम माननार पोताना तत्त्वने परथी भिन्न जाणतो नथी; तेमज विकार थाय तेने ज आत्मा मानीने
अनुभवनार पोताना शुद्ध अनंत शक्तिसंपन्न चैतन्यतत्त्वने विकारथी भिन्न जाणतो नथी. मारामां अनंतधर्मत्व
शक्ति छे एटले मारा एक स्वभावपणे रहीने अनंत शक्तिओने हुं धारण करनार छुं–ए ज मारुं स्वतत्त्व छे.
विकारने के परने हुं मारा स्वभावमां धारण करतो नथी, –आ प्रमाणे अनंत धर्मवाळा शुद्ध चैतन्य तत्त्वने
अंतरमां देखवुं ते सम्यग्ज्ञान छे, ने ते मोक्षनुं कारण छे.
मंगलाचरणना बीजा श्लोकमां ज आचार्यदेवे कह्युं हतुं के परथी भिन्न अनंतधर्मस्वरूप एवा
आत्मतत्त्वने देखनारी अनेकान्तमयी मूर्ति सदाय प्रकाशमान रहो. आवा आत्मतत्त्वने देखनारुं ज्ञान ते ज
सम्यग्ज्ञान छे, ते जयवंत रहो, एटले के साधकदशामां थयेलुं सम्यग्ज्ञान अप्रतिहतभावे आगळ वधीने
केवळज्ञान थाओ–एवी भावना छे. दरेक आत्मामां ज्ञानादि गुणो सरखा होवा छतां, एक आत्मानुं जे ज्ञान छे
ते बीजा आत्मानुं नथी–ए अपेक्षाए तेमनामां असाधारणपणुं पण छे, दरेक आत्माना गुणो जुदा जुदा छे,
दरेक आत्मानुं अस्तित्व जुदुं जुदुं छे. परथी भिन्न ने पोताना अनंत धर्मो साथे एकरूप एवा आत्माना
अस्तित्वने देखवुं ते सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे, ते ज साची विद्या होवाथी सरस्वती छे.
शक्ति कहो, गुण कहो, स्वभाव कहो, धर्म कहो–ते बधुंय अत्यारे एकार्थ छे. एक आत्मामां अनंत गुणो
छे, गुणो जुदा ने वस्तु एक–एवुं ज अनेकांतस्वरूप छे अने ते सर्वज्ञ भगवाने प्रत्यक्ष जोयुं छे. सर्वज्ञ
भगवान जिनदेवना मत सिवाय बीजे क्यांय आवुं यथार्थ वस्तुस्वरूप छे ज नहिं. आवुं यथार्थ वस्तुस्वरूप
अज्ञानी लोकोने ख्यालमां न आव्युं एटले एकांत नित्य अथवा एकांत अनित्य के ईश्वरकर्ता एम अनेक प्रकारे
ऊंधुंं मानी लीधुं छे, ने तेथी ज संसार परिभ्रमण छे. अहीं आचार्यदेवे अनेकान्तना वर्णनवडे यथार्थ
आत्मस्वरूप अद्भुत शैलीथी प्रसिद्ध कर्युं छे. आत्मा वस्तुपणे एक होवा छतां तेनामां गुणो अनंत छे.
आनंदनुं लक्षण जुदुं, श्रद्धानुं जुदुं, ज्ञाननुं जुदुं–एम गुणना लक्षण जुदा छे; परंतु ज्ञाननी वस्तु जुदी, आनंदनी
जुदी, श्रद्धानी जुदी–एम कांई जुदीजुदी वस्तुओ नथी, वस्तु तो एक ज छे. एक साथे अनंत गुणस्वरूपे एक
ज वस्तु भासे छे. जो एक गुणनुं लक्षण बीजा गुणोमां आवी जाय–तो ते लक्षणनी अतिव्याप्ति थई जाय ने
भिन्नभिन्न अनंत गुणो सिद्ध थई शके नहि; तेमज गुणभेद न होय तो क्षायक सम्यग्दर्शन थतां बीजा बधा
गुणो पण पूर्ण शुद्ध क्षायकभावे ऊघडी जवा जोईए! पण एम तो बनतुं नथी. साधक दशामां श्रद्धा–ज्ञान–
चारित्र वगेरे गुणना विकासनो क्रम पडे छे, केम के गुणोनुं लक्षण भिन्नभिन्न होवाथी कार्य भिन्नभिन्न छे. तेमज
एकांते गुणभेद ज छे–एम पण नथी, वस्तुपणे अनंत गुणनी अभेदता पण छे, एटले वस्तुना आश्रये
परिणमन थतां बधाय गुणोनी निर्मळतानो अंश एक साथे खीली जाय छे. सम्यग्दर्शन थतां केवळज्ञान ते ज
वखते भले न थाय, परंतु सम्यग्ज्ञान पण न थाय–एम बनतुं नथी. ए प्रमाणे बधा गुणनो एक अंश