वस्तुस्वरूप छे. ए रीते अनंतधर्मस्वरूप आत्माने ओळखीने तेनो अनुभव करवो ते मुक्तिनुं कारण छे.
शुं, तारा गुरुनुं स्वरूप शुं, तारा धर्मनुं स्वरूप शुं–तेनी पण तने ओळखाण न मळे तो तुं कोना जोरे तरीश?
ऊंधी मान्यता ने कुदेव–कुगुरु–कुधर्मनुं सेवन ते तो संसारमां डुबाडनार छे. तारो आत्मा ज कल्याणस्वरूप
होवाथी तुं ज शंकर छो, तारो आत्मा ज तारी निर्मळ पर्यायरूप सृष्टिनो सरजनहार होवाथी तुं ज ब्रह्मा छो,
तारो आत्मा ज स्वत: तारुं रक्षण करनार होवाथी तुं पोते ज विष्णु छो, आ सिवाय बीजो कोई शंकर, ब्रह्मा के
विष्णु तारुं कल्याण करनार, सरजनहार के रक्षण करनार नथी. अन्य कुदेवोनी तो शी वात? –सर्वज्ञ जिनेन्द्रदेव
पण तारो कोई धर्म तने आपनार नथी, भगवान तो एम कहे छे के अमारा जेवा ज बधाय धर्मो तारा
आत्मामां पण छे, तेनो स्वीकार कर तो तुं अमारा जेवो था, ने तारुं कल्याण थाय. –आवा पोताना स्वभावने
जे जीव स्वीकारे तेणे ज सर्वज्ञदेवनो अने सर्वज्ञदेवनी वाणीनो स्वीकार कर्यो छे; आनाथी विपरीत माने तेणे
फसाई जाय, ने अवतार निष्फळ गुमावी द्ये. जेम राख तो घरेघरे चूलामां भरी होय, पण रत्न तो क्यांक
विरला ज होय. तेम बहारथी ने रागथी धर्म मनावनारा अज्ञानीनी संख्या तो जगतमां घणी छे, पण
रागरहित चैतन्य रत्नने पारखनारा धर्मात्मा जीवो जगतमां बहु विरला छे; सत्य करतां असत्यने माननारा
मूढ जीवोनी संख्या झाझी होय तेथी कांई ते साचुं न थई जाय, केम के सत्ने कांई संख्यानी जरूर नथी अर्थात्
संख्या उपरथी सत्यनुं माप नथी. मनुष्य करतां कीडीना नगरोनी संख्या झाझी होय तेथी कांई माणस करतां
कीडी मोटी न थई जाय. सिद्ध भगवंतो करतां निगोदना जीवोनी संख्या अनंतगुणी वधारे छे, तेथी शुं सिद्ध
छे. जे भावमां पोतानुं हित होय ते उत्तम छे–पछी भले तेने माननारा बहु थोडा होय; अने जे भावमां पोतानुं
हित न होय ते छोडवा जेवो छे, –पछी भले तेने माननारा अनंता होय. तारा आत्मानो धर्म करवामां तने
बहारनो कोईनो साथ काम आवे तेम नथी, तारा आत्मामां रहेला अनंत धर्मोनो ज तने साथ छे. माटे तेनी
ओळखाण अने श्रद्धा करीने, तेनी साथे एकता कर, तो तारी पर्यायमां अधर्म छूटीने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्ररूप धर्म थाय.
प्रश्न:– एमने एकला एकला केम गमतुं हशे?
उत्तर:– अहो! एकला नथी पण अंतरमां अनंत गुणोनो साथ छे. बहारनो संग छोडीने अंतरमां
आत्माना अनंत गुणो साथे गोष्ठी (एकता) करतां तेमां अनंत आनंद छे, पण अज्ञानीने ते आनंद भासतो
नथी; ने बहारमां परचीज साथे गोष्ठी करतां तेमां आकुळतानुं दुःख छे छतां तेमां अज्ञानीने सुख भासे छे.
अरे! केवी विचित्रता छे के–
ऊघाड न्यायनेत्रने नीहाळ रे नीहाळ तुं,
निवृत्ति शीघ्रमेव धारी ते प्रवृत्ति बाळ तुं.”