दुःख छे छतां मूढ जीव त्यां प्रेम करीने मित्रता करे छे, ए केवी विचित्रता छे! –एम ज्ञानीओने करुणा आवे छे,
तेथी कहे छे के अरे जीव! तारा ज्ञानरूपी नेत्रने ऊघाडीने तुं नीहाळ रे नीहाळ! –स्वभावमां सुख छे ने
बहारमां क्यांय सुख नथी–एम तुं न्यायथी समज; अने बाह्यमां सुखनी मान्यतारूप अज्ञानथी तुं शीघ्र निवृत्ति
तेनी साथे प्रेम कर... तेनी साथे मित्रता कर... तेना आनंदमां केलि कर. स्वभाव साथे गोष्ठी करे अने त्यां न
गोठे एम बने नहि. अनंता संतो पोताना स्वभाव साथे गोष्ठी करीने, तेना आनंदमां केलि करतां करतां मुक्ति
पाम्या छे, माटे रागादि साथे एकतारूप मैत्री छोडीने अनंतशक्तिसंपन्न आत्मा साथे एकतारूप गोष्ठी कर. –
जेथी तने ज्ञान–आनंदमय एवा मुक्तपदनी प्राप्ति थशे. लोकोमां पण एम कहेवाय छे के मोटा साथे मित्रता
करवी; तेम अहीं रागादि तो तुच्छ, सामर्थ्यहीन छे, ने चिदानंदस्वभाव मोटो अनंत शक्तिवाळो छे, ते मोटानी
साथे मित्रता करतां मोक्षपद पमाय छे.
अनेकान्त ज धर्मनो प्राण छे. अनेकान्तथी ज वीतरागी
जिनशासन अनादिथी जयवंत वर्ते छे. अमृतमय एवुं मोक्षपद
ते अनेकान्तवडे ज पमाय छे, तेथी अनेकान्त अमृत छे.
शांतिनी आपनार छे.
ज्ञायकस्वरूप आत्मामां “तद्रूपमयपणुं अने अतद्रूपमयपणुं जेनुं लक्षण छे एवी विरुद्धधर्मत्व शक्ति”
तद्रूपपणुं ज होय तो आत्मा जड साथे पण तद्रूप थई जाय एटले जड थई जाय; ने एकलुं अतद्रूपपणुं ज
होय तो आत्मा पोताना ज्ञान–आनंदथी पण जुदो ठरे; माटे तद्रूप अने अतद्रूप एवी बंने शक्तिओ तेनामां
एकसाथे छे, एनुं नाम विरुद्धधर्मपणुं छे. परंतु सर्वथा विरुद्धधर्म पणुं नथी एटले के आत्मा अरूपी छे ने रूपी
पण छे, आत्मा चेतन छे ने अचेतन पण छे–एवुं विरुद्धधर्मपणुं नथी. अस्ति–नास्तिपणुं, तत्–अतत्पणुं एवा
धर्मोने परस्पर विरुद्धता होवा छतां, स्वाद्वादना बळवडे ते विरोध दूर थईने बंने धर्मो आत्मामां एक साथे
रहे छे. आत्मामां अस्तिपणुं छे? –के हा; आत्मामां स्वअपेक्षाए अस्तिपणुं छे.