Atmadharma magazine - Ank 165
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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: अषाड : २४८३ : आत्मधर्म : १३ :
तेनी सामुं पण जोतो नथी; अने बाह्य चीजमां के रागादिमां अंश मात्र पण सुख नथी, तेना लक्षे तो एकांत
दुःख छे छतां मूढ जीव त्यां प्रेम करीने मित्रता करे छे, ए केवी विचित्रता छे! –एम ज्ञानीओने करुणा आवे छे,
तेथी कहे छे के अरे जीव! तारा ज्ञानरूपी नेत्रने ऊघाडीने तुं नीहाळ रे नीहाळ! –स्वभावमां सुख छे ने
बहारमां क्यांय सुख नथी–एम तुं न्यायथी समज; अने बाह्यमां सुखनी मान्यतारूप अज्ञानथी तुं शीघ्र निवृत्ति
पाम! अज्ञाननी ते प्रवृत्तिने तुं बाळी नांख! तारा आत्माना अनंतधर्मोने ओळखीने तेनी साथे गोष्ठी कर...
तेनी साथे प्रेम कर... तेनी साथे मित्रता कर... तेना आनंदमां केलि कर. स्वभाव साथे गोष्ठी करे अने त्यां न
गोठे एम बने नहि. अनंता संतो पोताना स्वभाव साथे गोष्ठी करीने, तेना आनंदमां केलि करतां करतां मुक्ति
पाम्या छे, माटे रागादि साथे एकतारूप मैत्री छोडीने अनंतशक्तिसंपन्न आत्मा साथे एकतारूप गोष्ठी कर. –
जेथी तने ज्ञान–आनंदमय एवा मुक्तपदनी प्राप्ति थशे. लोकोमां पण एम कहेवाय छे के मोटा साथे मित्रता
करवी; तेम अहीं रागादि तो तुच्छ, सामर्थ्यहीन छे, ने चिदानंदस्वभाव मोटो अनंत शक्तिवाळो छे, ते मोटानी
साथे मित्रता करतां मोक्षपद पमाय छे.
–सत्तावीसमी अनंतधर्मत्वशक्तिनुं वर्णन अहीं पूरुं थयुं.
[२८]
अनेकान्त ज धर्मनो प्राण छे; जेम प्राण विना जीवन न
होय तेम अनेकान्त स्वरूपने समज्या विना धर्म न होय; माटे
अनेकान्त ज धर्मनो प्राण छे. अनेकान्तथी ज वीतरागी
जिनशासन अनादिथी जयवंत वर्ते छे. अमृतमय एवुं मोक्षपद
ते अनेकान्तवडे ज पमाय छे, तेथी अनेकान्त अमृत छे.
‘विरुद्ध धर्मत्व शक्ति’ कांई विरोध उपजावनारी नथी,
परंतु ते तो रागादि विरोधी भावोनो नाश करीने अविरुद्ध
शांतिनी आपनार छे.

ज्ञायकस्वरूप आत्मामां “तद्रूपमयपणुं अने अतद्रूपमयपणुं जेनुं लक्षण छे एवी विरुद्धधर्मत्व शक्ति”
पण छे.
आत्मा पोताना ज्ञान, आनंद वगेरे साथे सदा तद्रूपमय छे, अने पर पदार्थो साथे सदा अतद्रूप छे, ए
रीते तद्रूपपणुं अने अतद्रूपपणुं–एवा विरुद्धधर्मो एक साथे छे. जो आवुं विरुद्धधर्मपणुं न होय, ने एकलुं
तद्रूपपणुं ज होय तो आत्मा जड साथे पण तद्रूप थई जाय एटले जड थई जाय; ने एकलुं अतद्रूपपणुं ज
होय तो आत्मा पोताना ज्ञान–आनंदथी पण जुदो ठरे; माटे तद्रूप अने अतद्रूप एवी बंने शक्तिओ तेनामां
एकसाथे छे, एनुं नाम विरुद्धधर्मपणुं छे. परंतु सर्वथा विरुद्धधर्म पणुं नथी एटले के आत्मा अरूपी छे ने रूपी
पण छे, आत्मा चेतन छे ने अचेतन पण छे–एवुं विरुद्धधर्मपणुं नथी. अस्ति–नास्तिपणुं, तत्–अतत्पणुं एवा
धर्मोने परस्पर विरुद्धता होवा छतां, स्वाद्वादना बळवडे ते विरोध दूर थईने बंने धर्मो आत्मामां एक साथे
रहे छे. आत्मामां अस्तिपणुं छे? –के हा; आत्मामां स्वअपेक्षाए अस्तिपणुं छे.