Atmadharma magazine - Ank 165
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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: अषाड : २४८३ : आत्मधर्म : ५ :
छे. आवी कृतकृत्य परमात्मदशा ज जीवने परम हितरूप छे अने ते ज सर्व प्रकारे उपादेय छे.
ए रीते बहिरात्मा, अंतरात्मा ने परमात्मानुं स्वरूप कह्युं. ।। ।।
(६)
वीर सं. २४८२ वैशाख वद ९, समाधिशतक गा. ६ हवे छठ्ठी गाथामां परमात्माना बीजां नामो कहे छे–
निर्मलः केवलः शुद्धो विविक्तः प्रभुरव्ययः।
परमेष्ठी परात्मेति परमात्मेश्वरो जिनः।।
६।।
निर्मळ, केवळ, शुद्ध, विविक्त, प्रभु, अव्यय, परमेष्ठी, परात्मा, परमात्मा, ईश्वर अने जिन ईत्यादि
नामो परमात्माना वाचक छे.
भगवान परमात्मा द्रव्यकर्म तेमज भावकर्मरूप मलथी रहित होवाथी ‘निर्मळ’ छे. शरीरादिना संबंध
रहित होवाथी ‘केवळ’ छे. अरहंत परमात्मा पण खरेखर शरीरादिना संबंध रहित छे केमके शरीर के
ईन्द्रियोजनित सुख–दुःख के ज्ञान तेमने नथी, तेओ अतीन्द्रिय थई गया छे. द्रव्यकर्म–भावकर्मनो अभाव
होवाथी तेओ ‘शुद्ध’ छे. चार घाती कर्मो टळ्‌यां त्यां बाकी रहेला चार अघाती कर्मोनो पण क्षय ज थतो जाय छे,
ते रागादि अशुद्धता उपजावता नथी; माटे अरहंतभगवान पण परमविशुद्धिने पामेला होवाथी ‘शुद्ध’ छे.
रागादिथी अत्यंत भिन्न थई गया होवाथी भगवान ‘विविक्त’ छे. ईन्द्र वगेरेना पण स्वामी होवाथी ‘प्रभु’
छे. केवळज्ञानादि जे अनंतचतुष्टय प्रगट्या तेनाथी कदी च्यूत थता नथी तेथी ते ‘अव्यय’ छे. ईन्द्रादिकथी वंद्य
एवा परम चैतन्यपदमां स्थित होवाथी तेओ ‘परमेष्ठी’ छे. संसारना जीवोथी पर एटले उत्कृष्ट आत्मा
होवाथी ते ‘परात्मा’ छे; अने ते ज उत्तम होवाथी ‘परमात्मा’ छे. ईन्द्रादिने : पण न होय एवा अंतरंग–
बहिरंग दिव्य ऐश्वर्यसहित होवाथी ते ज ‘ईश्वर’ छे. अने समस्त द्रव्यकर्म–भावकर्मनुं उन्मूलन करी नांख्युं
होवाथी तेओ ज ‘जिन छे.’ आ प्रमाणे आ बधा नामो परमात्माना– ‘शुद्ध’ आत्माना–वाचक छे.
परमात्माना आवा स्वरूपने ओळखीने पोताना आत्माने पण तेवा स्वरूपे चिंतववो ते परमात्मा
थवानो उपाय छे.
ईन्द्र एक हजार ने आठ नामोथी भगवाननी स्तुति करे छे; अने संत–मुनिवरो पण अनेकअनेक
नामोथी भगवाननी स्तुति करे छे. संतो अंदरमां कर्मना संबंध रहित ने रागादिरहित पोताना शुद्ध
परमात्मस्वरूपने लक्षमां लईने तेने साधे छे, त्यां परमात्मस्वरूपने पामेला एवा अरहंत–सिद्धभगवंतो प्रत्ये
बहुमाननो भाव आवतां अनेक प्रकारे स्तुति करे छे. जेने आवा शुद्ध आत्मानुं लक्ष होय ते ज परमात्मानी
वास्तविक स्तुति करी शके.
जेने शुद्ध आत्मानी द्रष्टि छे एवा अंतरात्मा तो परमात्मानी भावना भावे छे, ने बहिरात्मा तो
रागादिनी भावना भावे छे. भगवान परमात्माने रागादिनो के कर्मोनो संबंध छूटी गयो छे तेथी ते ‘केवल’ छे,
तेम मारो आत्मा पण परमार्थे रागादिना संबंध वगरनो ने कर्मना संबंध वगरनो छे–एम पोताना आत्माने
‘केवळ’–परसंबंधरहित शुद्ध अनुभववो ते परमात्मा थवानो उपाय छे.
समयसारमां पण कह्युं छे के अबद्ध स्पृष्ट आत्मानो अनुभव ते जैनशासन छे. कर्मना बंधन विनानो ने
परना संबंध वगरनो एवो जे ज्ञायकस्वभाव तेनी सन्मुख थईने तेनो अनुभव करवो ते ज जैनशासन छे.
अने जे पोताना आवा आत्मानो अनुभव करे तेने ज परमात्मानी परमार्थ ओळखाण थाय के अहो! रागथी
जुदो पडीने जे अतीन्द्रिय आनंदनो अंश मने वेदनमां आव्यो ते ज जातनो (पण तेथी अनंतगुणो) परिपूर्ण
आनंद परमात्माने प्रगटी गयो छे, ने तेओ सर्वथा रागरहित थई गया छे. आ रीते अंशना वेदनपूर्वक पूरानुं
भान थतां साधकने ते प्रत्ये खरी भक्ति अने बहुमान आवे छे. परमात्मा प्रत्ये जेवा भक्ति–बहुमान ज्ञानीना
अंतरमां होय तेवा अज्ञानीने न होय.
भगवान परमात्मानुं ‘विविक्त’ एवुं पण एक नाम छे. विविक्त एटले भिन्न आत्मानो स्वभाव
रागादिथी विविक्त छे एम पहेलांं जाणीने, भगवान रागथी खाली विविक्त थई गया. जुओ, आ परमार्थ
‘विविक्तशय्यासन’ ! ब्रह्मचर्यनी रक्षा माटे विविक्तशय्यासन करवुं एटले के स्त्री–पशु वगेरेथी खाली एकांत
स्थानमां रहेवुं एम कह्युं छे तेमां तो व्यवहारमां