परमेष्ठी परात्मेति परमात्मेश्वरो जिनः।।
ईन्द्रियोजनित सुख–दुःख के ज्ञान तेमने नथी, तेओ अतीन्द्रिय थई गया छे. द्रव्यकर्म–भावकर्मनो अभाव
होवाथी तेओ ‘शुद्ध’ छे. चार घाती कर्मो टळ्यां त्यां बाकी रहेला चार अघाती कर्मोनो पण क्षय ज थतो जाय छे,
ते रागादि अशुद्धता उपजावता नथी; माटे अरहंतभगवान पण परमविशुद्धिने पामेला होवाथी ‘शुद्ध’ छे.
रागादिथी अत्यंत भिन्न थई गया होवाथी भगवान ‘विविक्त’ छे. ईन्द्र वगेरेना पण स्वामी होवाथी ‘प्रभु’
छे. केवळज्ञानादि जे अनंतचतुष्टय प्रगट्या तेनाथी कदी च्यूत थता नथी तेथी ते ‘अव्यय’ छे. ईन्द्रादिकथी वंद्य
एवा परम चैतन्यपदमां स्थित होवाथी तेओ ‘परमेष्ठी’ छे. संसारना जीवोथी पर एटले उत्कृष्ट आत्मा
होवाथी ते ‘परात्मा’ छे; अने ते ज उत्तम होवाथी ‘परमात्मा’ छे. ईन्द्रादिने : पण न होय एवा अंतरंग–
बहिरंग दिव्य ऐश्वर्यसहित होवाथी ते ज ‘ईश्वर’ छे. अने समस्त द्रव्यकर्म–भावकर्मनुं उन्मूलन करी नांख्युं
परमात्मस्वरूपने लक्षमां लईने तेने साधे छे, त्यां परमात्मस्वरूपने पामेला एवा अरहंत–सिद्धभगवंतो प्रत्ये
बहुमाननो भाव आवतां अनेक प्रकारे स्तुति करे छे. जेने आवा शुद्ध आत्मानुं लक्ष होय ते ज परमात्मानी
वास्तविक स्तुति करी शके.
तेम मारो आत्मा पण परमार्थे रागादिना संबंध वगरनो ने कर्मना संबंध वगरनो छे–एम पोताना आत्माने
‘केवळ’–परसंबंधरहित शुद्ध अनुभववो ते परमात्मा थवानो उपाय छे.
अने जे पोताना आवा आत्मानो अनुभव करे तेने ज परमात्मानी परमार्थ ओळखाण थाय के अहो! रागथी
जुदो पडीने जे अतीन्द्रिय आनंदनो अंश मने वेदनमां आव्यो ते ज जातनो (पण तेथी अनंतगुणो) परिपूर्ण
आनंद परमात्माने प्रगटी गयो छे, ने तेओ सर्वथा रागरहित थई गया छे. आ रीते अंशना वेदनपूर्वक पूरानुं
अंतरमां होय तेवा अज्ञानीने न होय.
‘विविक्तशय्यासन’ ! ब्रह्मचर्यनी रक्षा माटे विविक्तशय्यासन करवुं एटले के स्त्री–पशु वगेरेथी खाली एकांत
स्थानमां रहेवुं एम कह्युं छे तेमां तो व्यवहारमां