Atmadharma magazine - Ank 166
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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सम्यग्द्रष्टि
निःशंक अने निर्भय होय छे
(समयसार निर्जरा–अधिकार उपरना प्रवचनोमांथी)
वीर सं. २४८३ जेठ वद ८–९–१०
*
“आहा! हुं तो ज्ञानस्वभाव ज छुं. ज्ञानथी भिन्न बीजुं कांई मारुं स्वरूप नथी; मारुं
ज्ञानस्वरूप जे में प्रतीतमां लीधुं छे ते कदी अन्यथा थवानुं नथी, जगतमां कोई संयोगनुं एवुं
सामर्थ्य नथी के मारा ज्ञानस्वरूपने अन्यथा करी शके?”–आवी स्वभावनी निःशंकताने लीधे
सम्यग्द्रष्टि निर्भय होय छे.
ज्ञानी अंदरनी निःशंकताथी कहे छे केः भेदज्ञानरूपी भालावडे अमे मोहने वींधी नांख्यो
छे. मोहने मारीने अमे जईए छीए........एकाद भवमां मोक्ष पामशुं.....ने फरीने आ संसारमां
आवशुं नहि.
जुओ, आ ज्ञानीनी निर्भयता!
*
समकिती निःशंकित होवाथी सर्वत्र निर्भय छे–ए वात हवेनी गाथामां कहे छे. –
सम्यक्त्ववंत जीवो निःशंकित तेथी छे निर्भय अने छे सप्तभयप्रविमुक्त जेथी, तेथी ते निःशंक छे.२८८
जुओ, आ सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मानी दशा!
समकिती जीवो अत्यंत निःशंक अने निर्भय होय छे; केम? कारण के तेओ पोताना ज्ञानानंद स्वभाव
सिवाय समस्त कर्मोना फळ प्रत्ये अभिलाषा रहित होवाथी, कर्मो प्रत्ये अत्यंत निरपेक्षपणे वर्ते छे. रागादि थाय
तेनी पण अपेक्षा नथी एटले के आ राग मने कांई लाभ करशे एवी जरा पण बुद्धि नथी; हुं तो रागथी पार
ज्ञानस्वरूप ज छुं, ए सिवाय बीजुं कांई मारुं छे ज नहि.–आ प्रमाणे अत्यंत निःशंक–दारुण निश्चयवाळा होवाथी
सम्यग्द्रष्टि जीवो अत्यंत निर्भय छे. सिंह पाछळ आवे ने जराक भयथी समकिती पण दोडीने भागे, छतां ते वखते
पण, आचार्यदेव कहे छे के ते समकिती निर्भय छे, केमके आ सिंह मने मारा स्वरूपथी डगावशे–एवो भय तेमने
थतो नथी, माटे ते निर्भय छे. ज्ञानस्वरूपमां शंका उत्पन्न करे एवो भय ज्ञानीने कदी थतो नथी. “हुं ज्ञानस्वरूप
छुं”–एवी प्रतीतमां धर्मीने कदी शंका थती नथी, अने ज्ञानथी भिन्न कोई परभावनी तेने अपेक्षा नथी. स्वरूपमां
निःशंक अने परभावोथी अत्यंत निरपेक्ष होवाथी धर्मात्मा अत्यंत निर्भय छे. जराक रागादि थाय के प्रतिकूळता
आवी पडे त्यां “आ राग के प्रतिकूळता मारा ज्ञानस्वरूपनो नाश
श्रावणः २४८३ ः ९ः