सामर्थ्य नथी के मारा ज्ञानस्वरूपने अन्यथा करी शके?”–आवी स्वभावनी निःशंकताने लीधे
सम्यग्द्रष्टि निर्भय होय छे.
आवशुं नहि.
तेनी पण अपेक्षा नथी एटले के आ राग मने कांई लाभ करशे एवी जरा पण बुद्धि नथी; हुं तो रागथी पार
ज्ञानस्वरूप ज छुं, ए सिवाय बीजुं कांई मारुं छे ज नहि.–आ प्रमाणे अत्यंत निःशंक–दारुण निश्चयवाळा होवाथी
सम्यग्द्रष्टि जीवो अत्यंत निर्भय छे. सिंह पाछळ आवे ने जराक भयथी समकिती पण दोडीने भागे, छतां ते वखते
पण, आचार्यदेव कहे छे के ते समकिती निर्भय छे, केमके आ सिंह मने मारा स्वरूपथी डगावशे–एवो भय तेमने
थतो नथी, माटे ते निर्भय छे. ज्ञानस्वरूपमां शंका उत्पन्न करे एवो भय ज्ञानीने कदी थतो नथी. “हुं ज्ञानस्वरूप
छुं”–एवी प्रतीतमां धर्मीने कदी शंका थती नथी, अने ज्ञानथी भिन्न कोई परभावनी तेने अपेक्षा नथी. स्वरूपमां
निःशंक अने परभावोथी अत्यंत निरपेक्ष होवाथी धर्मात्मा अत्यंत निर्भय छे. जराक रागादि थाय के प्रतिकूळता
आवी पडे त्यां “आ राग के प्रतिकूळता मारा ज्ञानस्वरूपनो नाश