स्वयमेव पोताना ज्ञानभावने छोडीने ज्यारे अज्ञानरूपे परिणमे छे त्यारे पोताना स्वयंकृत अज्ञानभावथी ज ते
अज्ञानी थाय छे. पण कोई पर चीज तेने अज्ञानरूप करती नथी. परचीजनो संयोग होय के न होय तो पण
स्वयंकृत अज्ञानभावने लीधे ते जीव पोते ज अज्ञानी थाय छे. आ रीते जीव पोते पोताना स्वयंकृत भावथी ज
ज्ञानरूप के अज्ञानरूप परिणमे छे. अने जेने बंधन थाय छे तेने पोताना अज्ञानभावने लीधे ज बंधन थाय छे.
ज्ञानीने तो ज्ञानभाव होवाथी बंधन थतुं नथी. ज्ञानभावमांं ज्ञानीने बंधन थवानी शंका उठती ज नथी. आ रीते
ज्ञानभावमां निःशंकपणे वर्ततो ज्ञानी कर्मथी बंधातो नथी पण तेने कर्मोनी निर्जरा ज थती जाय छे.
“ आ ज्ञानी राग करे छे, आ ज्ञानी हर्ष वेदे छे;” पण ते वखते राग अने हर्षथी पार ज्ञानीनी परिणति वर्ते छे
तेने ते अज्ञानी देखतो नथी. ज्ञानीनी परिणति रागथी भिन्न छे. जेने पोताने रागथी भिन्न ज्ञानभावनुं वेदन नथी
ते जीव ज्ञानीनी रागातीत ज्ञानपरिणतिने क्यांथी जाणी शके? अंतरात्मानी गति बहिरात्मा क्यांथी जाणे?
ज्ञानीना परिणाम सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान सहित उज्जवळ छे, ते उज्जवळताने तेओ ज जाणे छे, मिथ्याद्रष्टिओ ते
उज्जवळताने जाणता नथी. जो ज्ञानीनी अंर्तपरिणतिने यथार्थ स्वरूपे ओळखे तो जीवने पोतामां स्वभाव अने
विभावनुं भेदज्ञान थया वगर रहे नहि.
यद्वज्रेऽपि पतत्वमी भयचलत्त्रैलोक्यमुक्ताध्वनि ।
सर्वामेव निसर्गनिर्भयतया शंकां विहाय स्वयं
जानंत स्वमवध्यबोधवपुषं बोधाच्चयवंते न हि
ज्ञानस्वभावथी च्यूत थता नथी. ‘हुं तो ज्ञानस्वरूप छुं, मारुं ज्ञानशरीर अवध्य छे, जगतमां कोई तेने हणवा समर्थ
नथी’–आम निःशंक अने निर्भयपणे जाणता थका धर्मात्मा पोताना ज्ञान–श्रद्धानथी डगता नथी.
थता नथी. स्वरूपमां निःशंकता छे तेथी तेमने निर्भयता छे. हुं तो ज्ञानशरीरी छुं, आ जड शरीर मारुं छे ज नहि, ने
मारा ज्ञानशरीरने हणवा कोई आ जगतमां समर्थ नथी. कदाचित वज्रपात थाय ने त्रणलोकना जीवो भयथी
खळभळी ऊठे तो पण त्यां धर्मात्मा पोताना स्वरूपनी श्रद्धाथी डगता नथी. जगतना साधारण जीवो तो भयथी
खळभळी ऊठे छे ने मार्ग छोडी दे छे, पण समकिती धर्मात्मा पोताना स्वरूपनी श्रद्धाथी निःशंकपणे वर्ते छे तेथी ते
निर्भय छे, ते पोताना मार्गथी च्यूत थता नथी;–आवा समकिती धर्मात्माने निर्जरा थाय छे.