थयो त्यां धर्मीने संदेह के भय क्यांथी होय? मारुं ज्ञानस्वरूप जे में प्रतीतमां लीधुं छे ते कदी अन्यथा थवानुं नथी.
जगतमां कोई संयोगनुं एवुं सामर्थ्य नथी के मारा ज्ञानस्वरूपने अन्यथा करी शके.–आवी स्वभावनी निःशंकताने
लीधे सम्यग्द्रष्टि निर्भय होय छे. हवे, समकितीने सात भय होता नथी–ए वात आचार्यदेव छ कलश द्वारा अद्भुत
रीते समजावे छेः
श्चिल्लोकं स्वयमेव केवलमयं यल्लोकयत्येककः ।
लोकोऽयं न तवापरस्तदपरस्तस्यास्ति तद्भीः कुतो
निश्शंकः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विंदति ।। १५५।।
आत्मानो लोक छे; तेनाथी भिन्न बीजो कोई आ लोक के परलोक मारो नथी.–आ रीते ज्ञानी तो निरंतर निःशंकपणे
पोताना आत्माने सहजज्ञानस्वरूपे ज अनुभवे छे, त्यां तेने आ लोक के परलोक संबंधी भय क्यांथी होय?
सदा आत्मा साथे शाश्वत रहे छे ने बीजाना संबंध वगरनो ते एकलो छे, आत्मा पोते अंतर्मुख थईने एकलो ज
(कोई मन–वाणी–देहादिनी मदद विना ज) पोताने अंतरमां अवलोके छे, तेथी पोते ज पोतानो लोक छे; ने आत्मानुं
चैतन्यस्वरूप सदा व्यक्त छे. आ रीते चैतन्यस्वरूप आत्माने ज पोतानो लोक जाणता होवाथी धर्मात्माने लोकसंबंधी
भय होतो नथी. अहो! हुं तो ज्ञायक छुं. ज्ञानस्वरूपमां ज मारुं सर्वस्व छे, ज्ञानस्वरूपथी बाह्य मारुं कोई छे ज नहि,
एम धर्मी जाणे छे, माटे देहादि सामग्रीनुं शुं थशे? एवो भय धर्मात्माने होतो नथी. हुं मारी अंतरनी सामग्रीथी
परिपूर्ण छुं, बहारनी सामग्री मारी नथी–एवा अनुभवनी निःशंकतामां धर्मात्माने आ लोक के परलोकनो भय होतो
नथी ‘आ जगतमां मारुं कोण? परभवमां मारुं शुं थशे? हुं क्यां जईश?’ एवो संदेह के भय धर्मात्माने थतो नथी.
हुं चैतन्यस्वरूप छुं ने परभवमां पण हुं ज्ञानस्वरूपे ज रहीश, ज्ञानस्वरूप ज मारो पर–लोक (उत्कृष्ट वस्तु) छे.
आवी ज्ञानस्वरूपनी निःशंकतामां धर्मीने बीजी शंका थती नथी, ने शंका नहि होवाथी भय पण थतो नथी.
अनुभवमां धर्मात्माने आ लोक के परलोक संबंधी भय होतो नथी.
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