जुओ, लौकिकमां राजपद वगेरेमां तो पुण्यनी अपेक्षा छे, तेमां कांई गुणनी अपेक्षा नथी. मिथ्याद्रष्टि जीव
पण कोई विशेष पुण्यना उदयथी राजा थाय, त्यां कोई एम विरोध करे के बस, अमारे माथे मिथ्याद्रष्टि राजा न
जोईए. आम विचारीने विरोध करे तो तेने कषायनो अभिप्राय छे, तेने पुण्यनो विवेक नथी. जेम पुण्य अनुसार जे
माता–पिता मळ्या, त्यां कोई एम विचारे के मिथ्याद्रष्टि जीवोने माता–पिता तरीके न स्वीकारुं, तो तेने विचारमां
विवेक नथी. भाई, लौकिकमां एम माप न होय, अने धर्ममां कोई “अमारा गुरु बहु पुण्यवंत छे”–एम एकला
पुण्य उपरथी गुरुपदने ओळखे तो तेणे खरेखर गुरुपदने ओळख्युं नथी. धर्म चीज जुदी छे ने पुण्य जुदी चीज छे.
लौकिकमां तो जे पुण्यथी मोटो होय ते मोटो गणाय.
अहीं तो कहे छे के धर्मात्माने पोताना चैतन्यस्वरूप सिवाय कोईनी अपेक्षा नथी. मारा चैतन्यस्वरूप उत्तम
लोकने बगाडवा आ जगतमां कोई समर्थ नथी. आम धर्मी जीव दुनियानी दरकार छोडीने आत्माना अंर्तस्वरूपमां
वळे छे. अंर्तस्वरूपना अनुभवमां आ लोकनी के परलोकनी चिंता शी? अंर्त स्वरूपना अवलंबने ज्ञानी समकिती
धर्मात्मा निरंतर निःशंक अने निर्भय छे.
आ लोक के परलोकमां सदाय मने मारा चैतन्यस्वरूपनो ज साथ छे. ए सिवाय कोई परनो साथ मने नथी
रागनो पण साथ मने नथी. आवी निःशंक प्रतीतने लीधे धर्मात्माने कदी आ लोक संबंधी के परलोक संबंधी भय
होतो नथी जेने चैतन्यस्वरूपनी निःशंकता नथी तेने ज भय होय छे ने तेने ज बंधन थाय छे. धर्मात्माने
चैतन्यस्वरूपनी निःशंकताने लीधे लोक संबंधी निर्भयता छे, तेथी तेने निर्जरा ज थती जाय छे पण बंधन थतुं नथी.
अहा, एक वार आ वातनो निर्णय तो करो. आ अंतरनी वस्तुनी वात छे. एकला वैराग्यनी आ वात
नथी; पण अंतरमां जगतथी भिन्न चैतन्य स्वरूपने ज्यां अनुभव्युं छे त्यां जगतमां क्यांय परद्रव्य के परभाव साथे
एकताबुद्धि थती ज नथी, ज्ञानमां ज एकतारूपे परिणमन रहे छे, माटे त्यां पर संबंधी भय होतो नथी. कर्मनो उदय
आवीने मारा चैतन्यस्वरूपने बगाडी नांखशे एवो पण भय धर्मात्माने होतो नथी.
(३) ज्ञानी निर्भयपणे ज्ञानने ज वेदे छे, बीजी कोई वेदनानो
भय ज्ञानीने नथी.
समकिती धर्मात्माने वेदना–भय पण होतो नथी एम हवे कहे छे के–
एषैकेव हि वेदना यदचलं ज्ञानं स्वयं वेद्यते
निर्भेदोदितवेद्यवेदकबलादेकं सदानाकुलेः ।
नैवान्यागतवेदनैव हि भवेतद्भीः कुतो ज्ञानिनो?
निश्शंकः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विंदति ।। १५६।।
जेने अंतरमां आत्माना अतीन्द्रिय आनंदनुं स्वसंवेदन थयुं छे एवा सम्यग्द्रष्टि–ज्ञानी धर्मात्मा जाणे छे के
मारो आत्मा वेदक थईने पोताना ज्ञानआनंदना निराकुळस्वादनो ज वेदनार छे; मारा ज्ञानआनंदथी भिन्न बीजुं
कोई वेदन मारामां नथी. मारा ज्ञान–आनंदना वेदनमां आकुळताना वेदननो पण अभाव छे, तो पछी पुद्गलजन्य
रोगादि वेदना तो क्यां रही? आ रीते निःशंकपणे पोताना सहज अनाकुळ ज्ञानने ज निरंतर वेदता होवाथी
ज्ञानीने बीजी वेदनानो भंग होतो नथी.
जुओ, अत्यारे ईन्फल्युएन्झा रोग बहु फेलायो छे, ने लोको चारेकोर भयभीत थई गया छे. पण धर्मी तो
एम जाणे छे के आ रोगनी वेदना तो देहमां छे, आ जड देह ज मारो नथी त्यां मने रोगनी वेदना केवी? हुं तो
मारा ज्ञानने ज वेदुं छुं; ज्ञान ज मारुं शरीर छे. मारा ज्ञानशरीरमां आ ईन्फल्युएन्झा
श्रावणः २४८३
ः ११ः