Atmadharma magazine - Ank 166
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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वगेरे रोगोनो प्रवेश ज नथी, त्यां मने वेदनानो भय क्यांथी होय?
वेद्य–वेदक बंने अभेद होय छे एटले के आत्मा वेदक थईने पोताना भावने वेदे, पण शरीरने न वेदे.
पोताथी भिन्न वस्तुनी वेदना पोताने केम होय? धर्मीनो आत्मा तो पोताथी अभिन्न एवा ज्ञाननुं ज वेदन करे छे;
ते ज्ञानवेदनमां बहारनी कोई वेदनानो प्रवेश ज नथी, तो पछी ज्ञानीने वेदनानो भय केम होय? आ देह छेदाय के
भेदाय, तेमां रोग थाय के वींछी करडे–तेनी वेदनानुं वेदन धर्मीने नथी–नबळाईथी जराक अणगमो के द्वेष थई जाय
तोपण ते द्वेषने पोताना ज्ञानस्वरूप साथे एकपणे तेओ वेदता नथी, द्वेषथी भिन्न ज्ञानभावने ज पोतामां
एकत्वपणे वेदे छे; माटे ज्ञानवेदनमां निःशंकपणे वर्तता धर्मात्माने बीजी कोई बाह्यवेदनानो भय होतो नथी.
‘वेदना’ मां अनुकूळ अने प्रतिकूळ बंने वेदना लेवी. जेम गमे तेवी प्रतिकूळतानी वेदनामां पण भींसाईने
धर्मात्मा पोताना स्वरूपनी श्रद्धा छोडता नथी; तेम गमे तेवी अनुकूळताना गंज होय तो पण धर्मात्मा तेनी
वेदनामां–संयोगना भोगवटामां–सुखबुद्धिथी एकाग्र थईने पोताना स्वरूपनी श्रद्धाने कदी छोडता नथी. हर्ष–
शोकरूप विकारनुं जे क्षणिक वेदन छे तेनाथी पण भिन्न पोताना ज्ञानस्वरूपने जाण्युं छे ने आत्माना अतीन्द्रिय
आनंदना अंशनुं वेदन थयुं छे, त्यां बाह्य रोगादिनी वेदनानो भय धर्मात्माने होतो नथी. अमे तो आत्माना
अतीन्द्रिय आनंदने वेदनारा छीए, हर्ष–शोकनुं वेदन थाय ते पण खरेखर अमारुं वेदन नथी, ते विकारी वेदनानो
मारा ज्ञानस्वरूपमां प्रवेश नथी; अने बहारमां रोगादि थाय ते तो माराथी बहार ज छे, तेनी वेदना मने नथी.–
आवा भेदज्ञानमां धर्मात्माने कदी वेदनानो भय होतो नथी.
जेमां जे भर्युं होय तेमां तेनुं वेदन थाय. धर्मी जाणे छे के मारा आत्मामां तो आनंद अने शांति ज भर्यां छे,
तेथी आत्मसन्मुख द्रष्टिमां मने मारा आनंद अने शांतिनुं ज वेदन छे. आवुं जाणतां धर्मी क्षणिक हर्षशोक जेटला
वेदनमां एकाकार थता नथी. मारा ज्ञानमां बीजी कोई चीजनो प्रवेश ज नथी. तो तेनुं वेदन मने केम होय? अज्ञानी
तो हर्ष–शोकना क्षणिकवेदनमां एवो एकाकार थई जाय छे के ज्ञानआनंदस्वरूपने साव भूली ज जाय छे, हर्षशोकथी
जुदुं कोई वेदन तेने भासतुं ज नथी; तेथी हर्ष–शोकना ज वेदनमां एकाकारपणे वर्ततो ते कर्मोथी बंधाय ज छे. ने
ज्ञानी धर्मात्माए हर्ष–शोकथी पार चैतन्य आनंदना वेदनने जाण्युं छे, तेथी ते हर्ष–शोकना वेदन वखते पण तेमां
एकाकाररूपे परिणमता ज नथी, तेनाथी भिन्नपणे रहीने, ज्ञानमां ज एकता करीने ज्ञानने वेदे छे, तेथी ते
ज्ञानवेदननी मुख्यतामां धर्मीने निर्जरा ज थती जाय छे. धर्मीने ज्ञाननी मुख्यतानुं वेदन होवाथी तेनुं ज एक वेदन
गण्युं, ने हर्ष–शोकनुं अल्प वेदन होवा छतां ते गौण होवाथी, तेनो अभाव गण्यो. आ रीते धर्मीने एक
ज्ञानवेदनामां बीजी वेदनानो अभाव ज छे, तेथी तेने वेदनाने भय होतो नथी.
श्रेणिकराजा वगेरे समकिती जीवो नरकमां छे तेमने पण अंतरमां चैतन्यद्रष्टिथी ज्ञानवेदननी ज मुख्यता छे,
शोकनुं वेदन मुख्य नथी, केमके द्रष्टि तो अंतरना चैतन्यस्वभाव उपर ज छे. हर्ष–शोकनी वेदना ते तो उपरना भावो
छे, ते उपरना भावो वडे अंतरमां जवातुं नथी. ते उपरना भावोने ओळंगीने धर्मात्माए अंतरमां प्रवेश कर्यो छे,–
अंतर्मुख थईने ते पोताना आत्मिक ज्ञान–आनंदना शांतरसने वेदे छे.
जेनुं वर्णन सांभळतां पण साधारण प्राणीने कंपारी छूटे एवी नरकनी वेदनामां पडयो होय, त्यां अज्ञानी
तो ते वेदनामां भींसाई जाय छे ने एनाथी भिन्न मारुं चैतन्यतत्त्व छे, एवी चैतन्यनी वेदना ते भूली जाय छे. अने
त्यां ज्ञानी तो ते नरकनी वेदनाथी पार पोताना ज्ञानानंदस्वरूपना वेदनने वेदे छे. ज्ञानानंदस्वरूपनी द्रष्टिनी
मुख्यतामां शोकना वेदननो तेने अभाव छे. पण आ वात अंतरनी छे, लोकोने बहारथी समजवुं कठण पडे तेवुं छे.
जुओ, पं. बनारसीदासजी ज्यारे अंतिम दशामां हता त्यारे ते तो पोतानी ज्ञानदशामां हता, पण पासेना
लोकोने एवी शंका पडी के–आनो जीव छूटतां वार लागे छे तेथी जरूर तेनो जीव क्यांक कोई
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आत्मधर्मः १६६