नहि. जुओ, आ ज्ञानीनी निर्भयता! ज्ञानीनां अंतरना वेदन बहारथी ओळखाय तेवा नथी.
निराकुळपणे अंतरना चैतन्यस्वभाव उपर निःशंक द्रष्टि राखीने ज्ञानना सहजवेदनने निर्भयपणे अनुभवे छे.
अने “जेवुं वर्तमान तेवुं भविष्य”–ए न्याये तेने एवो पण भय नथी थतो के ‘भविष्यमां रोगादिनी वेदनामां
हुं भींसाई जईश!’ ते निशंक छे के भविष्यमां पण मारा ज्ञानस्वरूपमांथी आवा निराकुळ ज्ञाननुं ज वेदन
आवशे, मारा ज्ञानमां बीजा वेदननो अभाव छे.–आवी निःशंकताने लीधे धर्मात्माने निर्भयता छे, तेमने
वेदनाभय होतो नथी.
सूरज उग्यो त्यां ते सूर्यनो प्रताप समस्त कर्मोने नष्ट करी नांखे छे; पूर्वकर्मनो उदय
वर्ततो होवा छतां द्रष्टिना जोरे सम्यग्द्रष्टिने नवा कर्मोनो जरापण बंध फरीने थतो
नथी पण पूर्वकर्म निर्जरतुं ज जाय छे. उदय छे माटे बंध थाय–ए वात क्यांय उडी
गई; उदय वखते चिदानंदस्वभाव तरफथी द्रष्टिना जोरे आत्मा ते उदयने खेरवी ज
नांखे छे, एटले ते उदय तेने बंधनुं कारण थया विना निर्जरी ज जाय छे. ज्यां
मिथ्यात्वना बंधनने उडाडी दीधुं त्यां अस्थिरताना अल्प बंधननी शी गणतरी?–ते
पण क्रमे क्रमे टळतुं ज जाय छे, आ रीते ज्ञानीने स्वसन्मुख परिणतिने लीधे कर्मनी
निर्जरा ज थाय छे, ने अल्पकाळमां सर्वकर्मनो नाश करीने ते सिद्धपदने पामे छे.–
आवो सम्यग्दर्शननो महिमा छे.